




तमिलनाडु के शिवगंगा जिले में हुई एक अभूतपूर्व पुरातात्विक खोज ने दक्षिण भारत के प्राचीन इतिहास को नया मोड़ दे दिया है। यहां पुरातत्व विभाग की टीम ने खुदाई के दौरान एक सैक्रोफैगस (पत्थर का ताबूत) और उसके भीतर 3700 साल पुरानी चिता की राख का अवशेष पाया है। इस अवशेष की रेडियोकार्बन डेटिंग (Radiocarbon Dating) से पता चला है कि यह 1692 ईसा पूर्व, यानी आज से लगभग साढ़े तीन सहस्राब्दी पहले का है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह खोज भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीनतम अंतिम संस्कार परंपराओं में से एक का प्रमाण है। इस चिता की राख में मिले कोयले के निशान और मिट्टी के कणों के विश्लेषण से यह सिद्ध हुआ है कि उस काल में दक्षिण भारत में आग से अंतिम संस्कार की परंपरा अस्तित्व में थी। इससे पहले तक माना जाता था कि इस प्रकार की परंपरा मुख्य रूप से सिंधु घाटी सभ्यता तक ही सीमित थी, लेकिन तमिलनाडु की यह खोज उस धारणा को बदल सकती है।
इस रहस्यमयी सैक्रोफैगस को पत्थरों की परतों से ढका गया था, जिसके भीतर मानव अस्थियों के अवशेष और राख जैसी सामग्री पाई गई। पुरातत्वविदों ने बताया कि यह खोज न केवल उस युग के धार्मिक संस्कारों का प्रमाण देती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि दक्षिण भारत में उस समय संस्कृतियों का एक उन्नत स्वरूप मौजूद था।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) और स्थानीय पुरातत्व विभाग के वैज्ञानिकों ने इस स्थल से प्राप्त सामग्री को अमेरिका की एक उच्च-तकनीकी प्रयोगशाला में भेजा, जहां रेडियोकार्बन डेटिंग तकनीक का उपयोग करके इसकी सटीक आयु का निर्धारण किया गया। रिपोर्ट के अनुसार, यह अवशेष 1692 ईसा पूर्व से 1680 ईसा पूर्व के बीच का है, जो दक्षिण भारत के लिए अब तक की सबसे प्राचीनतम तारीख मानी जा रही है।
पुरातत्वविदों का कहना है कि यह खोज सांगम युग से भी पहले की सभ्यता की उपस्थिति का प्रमाण दे सकती है। इस स्थान पर मिले ताबूत के निर्माण, मिट्टी के बर्तन और अस्थियों के अवशेषों से संकेत मिलता है कि यहां रहने वाले लोग एक संगठित समाज में जीवन व्यतीत करते थे, जिनके पास धातु निर्माण और अग्नि संस्कार की उन्नत तकनीकें थीं।
तमिलनाडु सरकार के पुरातत्व मंत्री ने इस खोज को “भारत के दक्षिणी भाग के लिए ऐतिहासिक क्षण” बताया है। उन्होंने कहा कि यह खोज यह सिद्ध करती है कि प्राचीन भारत की सभ्यता केवल उत्तर तक सीमित नहीं थी, बल्कि दक्षिण में भी हजारों साल पहले उन्नत संस्कृति और धार्मिक परंपराएं मौजूद थीं।
स्थानीय ग्रामीणों के अनुसार, यह स्थल पहले भी ऐतिहासिक महत्व का माना जाता था। यहां समय-समय पर मिट्टी के बर्तनों, लोहे के औजारों और तांबे के अवशेष मिलते रहे हैं। लेकिन यह पहली बार है जब किसी अंत्येष्टि स्थल का इतना स्पष्ट और वैज्ञानिक प्रमाण मिला है।
इस खुदाई के नेतृत्व कर रहे वरिष्ठ पुरातत्व विशेषज्ञ डॉ. एस. अरुलकुमार ने बताया कि “हमने इस सैक्रोफैगस के आसपास कई छोटे-छोटे मिट्टी के बर्तनों, राख के टुकड़ों और लोहे की कीलों जैसी चीज़ों की भी पहचान की है। यह सब इंगित करता है कि यह कोई साधारण कब्र नहीं थी, बल्कि यह किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति की चिता रही होगी।”
विश्लेषकों का कहना है कि इस तरह के ताबूत या सैक्रोफैगस आमतौर पर मेसोपोटामिया और मिस्र जैसी प्राचीन सभ्यताओं में पाए जाते हैं। लेकिन तमिलनाडु की यह खोज बताती है कि भारतीय उपमहाद्वीप में भी उस दौर में समान संस्कारिक और तकनीकी ज्ञान विकसित था। यह भारत की प्राचीनता और सभ्यतागत विविधता का जीवंत प्रमाण है।
इसके अतिरिक्त, खुदाई स्थल पर मिले कुछ चारकोल नमूनों और मिट्टी की परतों में पाए गए खनिजों के अध्ययन से यह संकेत मिला है कि उस समय यहां मानव बस्तियां थीं जो नदी किनारे के क्षेत्रों में बसती थीं। इससे यह भी पता चलता है कि दक्षिण भारत में लगभग 1700 ईसा पूर्व के समय में कृषि और धातु उद्योग अपने प्रारंभिक रूप में मौजूद थे।
तमिलनाडु की यह खोज भारत के पुरातात्विक इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हो सकती है। यह न केवल भारतीय सभ्यता की गहराई को दर्शाती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि भारत का दक्षिणी भाग भी प्राचीन विश्व की सांस्कृतिक और वैज्ञानिक गतिविधियों में अग्रणी था।
वर्तमान में इस स्थल को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जा रहा है और यहां भविष्य में एक मिनी पुरातत्व संग्रहालय बनाने की योजना है ताकि इस ऐतिहासिक खोज को जनता के सामने प्रस्तुत किया जा सके।
पुरातत्व विभाग का मानना है कि आने वाले महीनों में और भी खुदाइयों से ऐसे कई नए तथ्य सामने आ सकते हैं, जो दक्षिण भारत के इतिहास की अनकही कहानियों को उजागर करेंगे।
3700 साल पुरानी इस चिता की राख ने भारत के इतिहास की एक नई परत को उजागर किया है — एक ऐसी परत, जो यह बताती है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की जड़ें केवल सिंधु घाटी तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे उपमहाद्वीप में गहराई तक फैली हुई थीं।