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    भारत की कूटनीतिक मास्टरस्ट्रोक: काबुल में दूतावास खोलने की तैयारी, अमेरिका-चीन-पाकिस्तान को एकसाथ झटका

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    भारत ने एशिया की कूटनीतिक पिच पर ऐसा कदम उठाया है जिसने एक साथ अमेरिका, चीन और पाकिस्तान को हैरान कर दिया है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने तालिबान शासन वाले अफगानिस्तान के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध बहाल करने का ऐलान किया है। भारत ने यह निर्णय तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी के साथ मुलाकात के बाद लिया, जिससे यह संकेत मिलता है कि नई दिल्ली अब अफगानिस्तान में अपनी सक्रिय भूमिका फिर से शुरू करने जा रही है।

    यह कदम केवल एक राजनयिक परिवर्तन नहीं, बल्कि एशियाई राजनीति में एक नए शक्ति-संतुलन की शुरुआत के रूप में देखा जा रहा है। अमेरिका, चीन और पाकिस्तान लंबे समय से अफगानिस्तान की राजनीति पर अपनी पकड़ बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं भारत ने तालिबान से सीधे संवाद स्थापित कर यह संदेश दिया है कि वह अब क्षेत्रीय मुद्दों का ‘साइडलाइन खिलाड़ी’ नहीं रहेगा, बल्कि सक्रिय रूप से अपने हितों की रक्षा करेगा।

    भारत की अफगान नीति में ऐतिहासिक बदलाव

    अफगानिस्तान में 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद भारत ने अपने दूतावास को सुरक्षा कारणों से बंद कर दिया था। हालांकि, भारत ने अफगानिस्तान को अकेला नहीं छोड़ा। उसने काबुल में “टेक्निकल मिशन” के तहत सीमित राजनयिक उपस्थिति बनाए रखी, ताकि मानवीय सहायता, स्वास्थ्य और शिक्षा परियोजनाओं को जारी रखा जा सके।

    अब भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह तालिबान सरकार के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित करेगा और काबुल में पूर्ण रूप से भारतीय दूतावास खोलेगा। जयशंकर ने यह भी कहा कि भारत अफगानिस्तान में स्थिरता, सुरक्षा और विकास को प्राथमिकता देगा। यह संदेश अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की गंभीरता को दर्शाता है।

    तालिबान से डील का रणनीतिक महत्व

    भारत और तालिबान के बीच संवाद का यह नया अध्याय कई मायनों में रणनीतिक रूप से अहम है। एक ओर जहां पाकिस्तान लंबे समय से अफगानिस्तान में अपनी राजनीतिक और सैन्य प्रभाव बनाए रखने की कोशिश कर रहा है, वहीं भारत का यह कदम उस प्रभाव को चुनौती देता है।

    भारत का उद्देश्य है कि अफगानिस्तान के साथ सीधे संबंध स्थापित कर क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत की जाए। चीन, जिसने पहले ही काबुल में अपना राजनयिक मिशन बहाल कर लिया है, अब भारत के इस कदम से नई प्रतिस्पर्धा का सामना करेगा। वहीं अमेरिका, जो 2021 में अफगानिस्तान से अपनी सेना हटाकर पीछे हट चुका है, इस कदम को दक्षिण एशिया में भारत के बढ़ते प्रभाव के संकेत के रूप में देखेगा।

    भारत की योजना अफगानिस्तान में बुनियादी ढांचे, शिक्षा, स्वास्थ्य और ऊर्जा परियोजनाओं के माध्यम से अपनी पकड़ मजबूत करने की है। दूतावास फिर से खुलने के बाद भारत को अफगानिस्तान में अपने निवेश की निगरानी और सुरक्षा में आसानी होगी।

    अमेरिका, चीन और पाकिस्तान को झटका क्यों?

    अमेरिका के लिए यह कदम इसलिए अप्रत्याशित है क्योंकि उसने अफगानिस्तान से पूरी तरह दूरी बना ली थी और अब भारत उस जगह अपनी रणनीतिक उपस्थिति दर्ज कराने जा रहा है जहाँ अमेरिका की पकड़ कमजोर हो चुकी है।

    चीन पहले से ही अफगानिस्तान में खनन और व्यापारिक अवसरों पर काम कर रहा है। वह ‘चीन-पाकिस्तान-तालिबान’ त्रिकोण को मजबूत करना चाहता था। लेकिन भारत के इस कदम ने उसकी ‘सेंट्रल एशिया में आर्थिक घुसपैठ’ की योजना को चुनौती दी है।

    पाकिस्तान के लिए यह झटका सबसे बड़ा है। उसने हमेशा तालिबान पर अपना प्रभाव बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन अब तालिबान की भारत से वार्ता ने यह संकेत दिया है कि काबुल अब केवल इस्लामाबाद का मोहरा नहीं रहेगा। भारत की उपस्थिति से अफगानिस्तान में पाकिस्तान के सुरक्षा और आर्थिक हितों पर असर पड़ सकता है।

    भारत की रणनीतिक सोच और “काबुल का किला”

    भारत की यह चाल केवल राजनयिक संबंधों की बहाली नहीं बल्कि “काबुल में अपना किला” खड़ा करने की योजना है। इस रणनीति के तीन प्रमुख पहलू हैं —

    1. कूटनीतिक पुनर्स्थापन: भारत अब फिर से अफगानिस्तान में राजनीतिक संवाद और मानवीय कार्यक्रमों के केंद्र में रहेगा।

    2. सुरक्षा और आतंकवाद के खिलाफ सहयोग: भारत चाहता है कि तालिबान शासन भारत के खिलाफ काम करने वाले आतंकी संगठनों को पनाह न दे।

    3. आर्थिक कनेक्टिविटी: भारत अफगानिस्तान को मध्य एशिया के साथ व्यापारिक गलियारे के रूप में विकसित करना चाहता है, ताकि पाकिस्तान को दरकिनार करते हुए भारत को भू-राजनीतिक लाभ मिले।

    क्या तालिबान पर भरोसा करना जोखिमभरा है?

    भारत का यह कदम साहसिक है, लेकिन चुनौतियों से भरा हुआ भी। तालिबान की विचारधारा और शासन पद्धति को लेकर भारत सहित अंतरराष्ट्रीय समुदाय में गहरी चिंताएं हैं। महिला अधिकार, शिक्षा, लोकतंत्र और मानवाधिकार जैसे मुद्दे अब भी विवादों में हैं।

    भारत ने अपने बयान में यह साफ किया है कि कूटनीति का यह कदम “तालिबान को मान्यता देना नहीं है”, बल्कि “अफगानिस्तान की जनता के साथ संवाद और सहायता जारी रखने” की प्रक्रिया है। इसका मतलब है कि भारत तालिबान को एक शासन के रूप में स्वीकारने के बजाय व्यावहारिक स्तर पर बातचीत कर रहा है।

    भारत की यह कूटनीतिक चाल केवल अफगानिस्तान तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में उसके रणनीतिक प्रभाव को परिभाषित करेगी। काबुल में दूतावास खोलना एक ऐसा संकेत है जो दर्शाता है कि भारत अब केवल “मानवीय सहायता देने वाला साझेदार” नहीं, बल्कि “राजनयिक शक्ति केंद्र” के रूप में खुद को स्थापित कर रहा है।

    अमेरिका, चीन और पाकिस्तान के लिए यह कदम एक झटका है, क्योंकि भारत अब उस क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभाने जा रहा है, जहां इन तीनों देशों की महत्वाकांक्षाएं आपस में टकरा रही हैं।

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