




हाल ही में नोबेल शांति पुरस्कार 2025 का ऐलान किया गया है, जिसमें वेनेजुएला की विपक्षी नेता मारिया कोरिना माचाडो को यह प्रतिष्ठित सम्मान दिया गया है। जैसे ही यह खबर सामने आई, पूरी दुनिया में इस पर चर्चा शुरू हो गई। वहीं भारत में यह मामला राजनीतिक रंग ले बैठा जब कांग्रेस के प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत ने सोशल मीडिया पर एक ऐसा पोस्ट किया, जिसमें उन्होंने नोबेल शांति पुरस्कार को राहुल गांधी से जोड़ते हुए टिप्पणी की।
सुरेंद्र राजपूत ने अपने आधिकारिक X (पूर्व में ट्विटर) अकाउंट पर पोस्ट करते हुए लिखा कि “अगर विश्व में सच्चे लोकतंत्र और मानवता के लिए संघर्ष करने वालों को नोबेल मिलना चाहिए, तो राहुल गांधी इसका सबसे बड़ा हकदार हैं।” इस बयान के साथ ही सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं का सिलसिला शुरू हो गया।
कई कांग्रेस समर्थकों ने राजपूत के इस बयान का समर्थन करते हुए कहा कि राहुल गांधी ने “भारत जोड़ो यात्रा” के जरिए देश में एकता और सद्भाव का संदेश फैलाया है, जो शांति और सौहार्द का प्रतीक है। उनका कहना था कि राहुल गांधी जैसे नेताओं ने विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ एक सकारात्मक अभियान चलाया, जो नोबेल की भावना से मेल खाता है।
लेकिन, वहीं दूसरी ओर, विपक्षी दलों और सोशल मीडिया यूजर्स ने इस पोस्ट की जमकर आलोचना की। कई यूजर्स ने राजपूत के बयान को “अवास्तविक” बताया और कहा कि राजनीतिक लाभ के लिए नोबेल जैसे अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों को नहीं जोड़ा जाना चाहिए। एक यूजर ने लिखा, “राहुल गांधी को नोबेल देना उतना ही अविश्वसनीय है जितना कि राजनीति में ईमानदारी की उम्मीद करना।”
कुछ लोगों ने इसे “सोशल मीडिया पर चर्चा बटोरने का तरीका” बताया। उन्होंने कहा कि ऐसे पोस्ट केवल राजनीतिक माहौल गर्माने के लिए किए जाते हैं, जिनका कोई वास्तविक आधार नहीं होता। वहीं, कुछ ने मज़ाकिया लहजे में लिखा कि “नोबेल समिति शायद अब भारतीय राजनीति पर भी विचार करने लगे।”
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस प्रवक्ता का यह बयान ऐसे समय में आया है जब पार्टी खुद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक सकारात्मक छवि देने की कोशिश कर रही है। राहुल गांधी की विदेश यात्राओं और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उनकी उपस्थिति को देखते हुए कांग्रेस यह दिखाना चाहती है कि उनका नेता वैश्विक स्तर पर एक “शांति और लोकतंत्र के संदेशवाहक” के रूप में देखा जाए।
हालांकि, नोबेल समिति के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह पुरस्कार किसी राजनीतिक बयान या प्रचार के आधार पर नहीं दिया जाता, बल्कि लंबे समय तक समाज, मानवाधिकार, या विश्व शांति में योगदान के आधार पर प्रदान किया जाता है। इस संदर्भ में राहुल गांधी का नाम सामने आना फिलहाल एक सोशल मीडिया ट्रेंड से अधिक कुछ नहीं है।
कई विशेषज्ञों ने यह भी कहा कि सुरेंद्र राजपूत जैसे नेताओं को सोशल मीडिया पर ऐसे बयानों से बचना चाहिए जो पार्टी की छवि को विवादित बना दें। एक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार ने कहा, “राहुल गांधी की छवि को मजबूत करने के लिए उनके काम और विचारों को प्रचारित करना जरूरी है, लेकिन नोबेल पुरस्कार जैसी संस्थाओं को इसमें खींचना अनुचित है।”
इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि भारत की राजनीति में सोशल मीडिया कितना प्रभावशाली माध्यम बन चुका है। एक साधारण पोस्ट भी मिनटों में ट्रेंड करने लगता है और राजनीतिक बहस का विषय बन जाता है। कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टियों के समर्थकों ने इस मुद्दे को अपने-अपने दृष्टिकोण से उठाया, जिससे यह सोशल मीडिया पर घंटों तक चर्चा का विषय बना रहा।
वहीं, राहुल गांधी की ओर से इस पूरे विवाद पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी गई है। कांग्रेस पार्टी के अन्य नेताओं ने भी फिलहाल इस पर चुप्पी साध रखी है। लेकिन इतना तय है कि सुरेंद्र राजपूत के इस पोस्ट ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है कि क्या राजनीति में प्रतीकात्मक सम्मान और वास्तविक योगदान के बीच की रेखा धीरे-धीरे धुंधली होती जा रही है।
नोबेल शांति पुरस्कार के विजेताओं को लेकर हमेशा ही वैश्विक स्तर पर सम्मान की भावना रहती है। ऐसे में भारतीय राजनीति के संदर्भ में इस पुरस्कार का उल्लेख करना कहीं न कहीं राजनीतिक रणनीति का हिस्सा भी माना जा सकता है। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि इस विवाद के बाद कांग्रेस किस तरह अपनी पोजिशन स्पष्ट करती है और राहुल गांधी की छवि को लेकर पार्टी कौन सी नई रणनीति अपनाती है।