




भारत में सामाजिक समानता और मानवाधिकारों की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर समुदाय के पक्ष में बड़ा फैसला सुनाया है। अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करने के निर्देश दिए हैं कि किन्नरों या ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव न किया जाए — चाहे वह नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं या सार्वजनिक सुविधाओं तक पहुंच से संबंधित क्यों न हो।
मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस फैसले में कहा कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति भी इस देश के नागरिक हैं, और उन्हें संविधान द्वारा दिए गए समान अधिकारों का पूरा लाभ मिलना चाहिए। अदालत ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह इस दिशा में एक विशेष समिति (Special Committee) गठित करे, जो ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों की निगरानी करेगी और यह सुनिश्चित करेगी कि समाज के हर स्तर पर उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव न हो।
यह फैसला उस याचिका पर आया है जिसमें कई ट्रांसजेंडर कार्यकर्ताओं और सामाजिक संगठनों ने अदालत से गुहार लगाई थी कि सरकारें ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट, 2019 को प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर रही हैं। याचिकाकर्ताओं ने बताया कि कानून बनने के बावजूद कई राज्यों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार में समान अवसर नहीं मिल पा रहे हैं।
अदालत ने माना कि समाज में किन्नरों के साथ अब भी असमानता और पूर्वाग्रह गहराई तक मौजूद हैं। उन्हें अक्सर स्कूलों में तिरस्कार झेलना पड़ता है, अस्पतालों में उचित उपचार नहीं मिलता और सरकारी नौकरियों या निजी क्षेत्र में भी उन्हें नजरअंदाज किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस स्थिति को संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन बताया, जो समानता और जीवन के अधिकार की गारंटी देते हैं।
फैसले में यह भी कहा गया कि ट्रांसजेंडर समुदाय के कल्याण के लिए बनाई जाने वाली नीतियों में उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जाए। अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे ट्रांसजेंडर प्रतिनिधियों को इस समिति में शामिल करें ताकि नीतियां केवल कागजों पर न रह जाएं, बल्कि जमीनी स्तर पर असर दिखाएं।
इस समिति का मुख्य काम ट्रांसजेंडर लोगों के लिए एक व्यापक नीति ढांचा (Inclusive Policy Framework) तैयार करना होगा, जिसमें रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और आवास जैसी बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखा जाएगा। साथ ही, समिति हर छह महीने में सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट देगी कि कितनी प्रगति हुई और किन क्षेत्रों में सुधार की आवश्यकता है।
फैसले के बाद देशभर के मानवाधिकार संगठनों और LGBTQ+ समुदाय ने इसे ऐतिहासिक करार दिया है। कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह फैसला न केवल सामाजिक स्वीकार्यता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, बल्कि यह ट्रांसजेंडर समुदाय के सम्मान और आत्मनिर्भरता की दिशा में भी बड़ी जीत है।
ट्रांसजेंडर अधिकारों के लिए काम करने वाली प्रसिद्ध कार्यकर्ता लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने कहा कि यह फैसला उम्मीद की एक नई किरण लेकर आया है। उन्होंने कहा, “हम केवल दया या सहानुभूति नहीं चाहते, हमें समान अधिकार चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने आज साबित कर दिया कि संविधान सबके लिए है, चाहे वो किसी भी लिंग के हों।”
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि कोई भी सरकारी संस्था या निजी संगठन भर्ती या सेवा के दौरान लिंग के आधार पर किसी व्यक्ति से भेदभाव नहीं कर सकता। अगर ऐसा पाया गया, तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी। अदालत ने केंद्र को यह भी निर्देश दिया कि ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए स्पेशल हेल्थ केयर स्कीम्स बनाई जाएं, जिनके तहत जेंडर रिअसाइनमेंट सर्जरी (Gender Reassignment Surgery) और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान पहुंच हो।
फैसले में यह भी कहा गया कि सभी सरकारी कार्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए शौचालय और अन्य सुविधाएं अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराई जाएं। अदालत ने यह भी सुझाव दिया कि स्कूलों और कॉलेजों में जेंडर सेंसिटाइजेशन प्रोग्राम्स शुरू किए जाएं ताकि समाज में ट्रांसजेंडर लोगों के प्रति सोच में सकारात्मक बदलाव आए।
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के 2014 के नालसा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (NALSA v. Union of India) मामले के बाद दूसरा सबसे बड़ा मील का पत्थर है। उस फैसले में अदालत ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को ‘थर्ड जेंडर’ के रूप में मान्यता दी थी। अब यह नया आदेश उस निर्णय को और मजबूत करता है और राज्यों को सक्रिय भूमिका निभाने के लिए बाध्य करता है।
इस निर्णय के बाद केंद्र सरकार ने भी सकारात्मक रुख अपनाया है। सामाजिक न्याय मंत्रालय ने कहा है कि समिति के गठन की प्रक्रिया जल्द शुरू की जाएगी और राज्यों से उनके प्रतिनिधियों के नाम मांगे जाएंगे। मंत्रालय का कहना है कि सरकार ट्रांसजेंडर समुदाय के सामाजिक समावेश के लिए नए कार्यक्रमों और योजनाओं पर विचार कर रही है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल कानून और संवैधानिक समानता की दिशा में एक बड़ी पहल है, बल्कि यह समाज को यह संदेश भी देता है कि किसी भी नागरिक को उसके लिंग, पहचान या अभिव्यक्ति के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता। यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र के उस मूल मूल्य को फिर से स्थापित करता है जो कहता है — “समानता सबका अधिकार है।”