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भारत और नेपाल की सीमा पर स्थित बिहार के सीतामढ़ी जिले का सोनबरसा प्रखंड एक ऐसा स्थान है, जहां हर साल छठ महापर्व के दौरान एक अनोखा और अद्भुत दृश्य देखने को मिलता है। इस क्षेत्र से बहने वाली ‘झीम’ नदी छठ के अवसर पर श्रद्धा और भक्ति का केंद्र बन जाती है। यह नदी न केवल अपने सौंदर्य और शांत बहाव के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इसके किनारे होने वाले छठ उत्सव के कारण यह पूरे क्षेत्र में विशेष महत्व रखती है।
छठ महापर्व सूर्यदेव और छठी मैया को समर्पित एक प्रमुख हिंदू त्योहार है, जो विशेष रूप से बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। इस पर्व में व्रती महिलाएं और पुरुष चार दिन तक उपवास रखते हैं और सूर्यास्त व सूर्योदय के समय नदी या तालाब के किनारे खड़े होकर पूजा करते हैं। सीतामढ़ी के सोनबरसा प्रखंड में यह पर्व अपनी अनोखी परंपरा के लिए जाना जाता है।

सबसे रोचक दृश्य तब देखने को मिलता है जब छठ पूजा का समय आता है। झीम नदी के एक किनारे भारतीय महिलाएं व्रत करती हैं, तो दूसरे किनारे नेपाल के सीमा क्षेत्र की महिलाएं समान रूप से सूर्य और छठी मैया की पूजा करती हैं। इस दृश्य को देखने के लिए आसपास के गांव और शहर से लोग बड़ी संख्या में आते हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि यह दो देशों की सांस्कृतिक और धार्मिक समरसता का प्रतीक है।
स्थानीय निवासी सुनीता देवी कहती हैं, “यह दृश्य हर साल हमारे दिलों को छू जाता है। नदी के दोनों किनारों पर श्रद्धालु महिलाएं सूर्य को अर्घ्य देती हैं। ऐसा लगता है मानो भक्ति का कोई पुल बन गया हो जो भारत और नेपाल को जोड़ता है।”
झीम नदी का यह अनोखा दृश्य न केवल भक्ति का प्रतीक है, बल्कि सांस्कृतिक पर्यटन के लिहाज से भी आकर्षक बन गया है। पर्यटक और फोटोग्राफर हर साल इस समय क्षेत्र में आते हैं ताकि वे इस अद्भुत मिलन को कैमरे में कैद कर सकें। नदी के किनारे सजे घाट, डगडगाती घंटियां, दीपों की रोशनी और व्रती महिलाओं का पारंपरिक पोशाकों में खड़ा होना एक मनोहारी दृश्य प्रस्तुत करता है।
छठ महापर्व की तैयारी झीम नदी के आसपास महीनों पहले शुरू हो जाती है। स्थानीय प्रशासन घाटों की सफाई करता है, पूजा सामग्री उपलब्ध कराता है और सुरक्षा के व्यापक इंतजाम करता है। इसके अलावा, नेपाल की स्थानीय पंचायत भी अपने तट पर घाटों की व्यवस्था करती है ताकि वहां की महिलाएं सुरक्षित और सुविधाजनक तरीके से पूजा कर सकें।
इस नदी के किनारे की परंपरा ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि भले ही राजनीतिक सीमा अलग-अलग हो, धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाएं हमेशा लोगों को जोड़ती हैं। दोनों देशों की महिलाएं, भले ही अलग क्षेत्र में हों, छठ व्रत के समय एक साथ अर्घ्य देती हैं और सूर्य को नमन करती हैं। यह दृश्य पर्यटकों और फोटोग्राफरों के लिए हमेशा आकर्षण का केंद्र बनता है।
स्थानीय धार्मिक विद्वानों के अनुसार, झीम नदी को पारंपरिक रूप से सूर्य देव और छठी मैया की कृपा देने वाली नदी माना जाता है। यहां छठ पूजा के दौरान नदी में डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य देने का विशेष महत्व है। ऐसा माना जाता है कि इससे व्रती के जीवन में सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य आता है।
छठ महापर्व के दौरान झीम नदी के घाटों पर वातावरण विशेष रूप से भक्तिमय और रंगीन हो जाता है। महिलाएं पारंपरिक साड़ी और चुनरी पहनती हैं, हाथों में मिट्टी के दीपक और फल लेकर सूर्य को अर्घ्य देती हैं। दोनों किनारों पर मौजूद संगीत और भजन वातावरण को और भी भक्तिपूर्ण बना देते हैं।
इस अद्भुत परंपरा के कारण झीम नदी का महत्व सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी बढ़ गया है। यह स्थानीय समुदायों में भाईचारे और साझा सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करता है। हर साल बिहार और नेपाल के लोग इस घाट पर एकत्रित होकर सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों को भी मजबूती प्रदान करते हैं।
सिर्फ पर्यटक ही नहीं, बल्कि स्थानीय मीडिया भी इस अद्भुत दृश्य को कवर करता है। चैनलों और समाचार पत्रों में इस दृश्य की तस्वीरें प्रकाशित होती हैं, जिससे देशभर में इस परंपरा की महत्ता और प्रसिद्धि बढ़ती है।
झीम नदी और इसके दोनों किनारों पर होने वाली छठ पूजा यह संदेश देती है कि भक्ति और श्रद्धा की कोई सीमा नहीं होती। चाहे राजनीतिक या भौगोलिक अंतर हो, धर्म और संस्कृति लोगों को जोड़ने में सक्षम होती हैं।
इस अनोखे दृश्य ने झीम नदी को न केवल भारत के सांस्कृतिक नक्शे पर बल्कि अंतरराष्ट्रीय पर्यटन मानचित्र पर भी प्रमुख बना दिया है। आने वाले वर्षों में यह स्थान और भी ज्यादा लोगों को अपनी ओर आकर्षित करेगा, क्योंकि यह श्रद्धा, सांस्कृतिक मिलन और प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत मिश्रण पेश करता है।







