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    सात फेरे नहीं तो भी ‘हम तेरे’… दिल्ली हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला, बोला- सप्तपदी के बिना भी वैध हो सकता है विवाह

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    दिल्ली हाई कोर्ट ने हिंदू विवाह अधिनियम (Hindu Marriage Act) को लेकर एक ऐतिहासिक और दूरगामी प्रभाव वाला फैसला सुनाया है। अदालत ने कहा है कि हिंदू विवाह में ‘सप्तपदी’ यानी सात फेरों की रस्म एक महत्वपूर्ण धार्मिक परंपरा है, लेकिन इसका सबूत न मिलने पर विवाह को अमान्य नहीं ठहराया जा सकता। कोर्ट के इस फैसले ने विवाह संबंधी पारंपरिक मान्यताओं और कानूनी व्याख्याओं दोनों पर नई बहस छेड़ दी है।

    यह फैसला उस मामले में आया है, जिसमें एक व्यक्ति ने यह दावा किया था कि उसकी पत्नी के साथ उसका विवाह वैध नहीं है, क्योंकि विवाह के दौरान सात फेरे पूरे नहीं हुए थे और इसका कोई सबूत भी नहीं है। वहीं, पत्नी ने अदालत में कहा कि विवाह परिवार और समाज की उपस्थिति में सभी रस्मों के साथ हुआ था और दोनों लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहे।

    अदालत ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद कहा कि हिंदू विवाह केवल एक रस्म या धार्मिक विधि नहीं है, बल्कि “एक सामाजिक और भावनात्मक बंधन” भी है।

    न्यायमूर्ति की टिप्पणी:
    दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति ने अपने फैसले में कहा —

    “सप्तपदी विवाह का एक पवित्र और पारंपरिक हिस्सा है, लेकिन यदि इस रस्म का दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध न हो, तो केवल इस आधार पर विवाह को अमान्य नहीं कहा जा सकता। विवाह की वैधता उस बंधन और सामाजिक मान्यता पर निर्भर करती है, जो पति-पत्नी और उनके परिवारों के बीच स्थापित होती है।”

    कोर्ट ने आगे कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में विवाह की परिभाषा केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें सामाजिक सहमति, साथ रहने का इरादा और सार्वजनिक मान्यता भी शामिल है।

    क्या कहा गया हिंदू विवाह अधिनियम में?
    हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 में कहा गया है कि हिंदू विवाह को वैध माने जाने के लिए विवाह की रस्में उस समय के प्रचलित रिवाजों के अनुसार पूरी की जानी चाहिए। कई समुदायों में सप्तपदी (सात फेरे) अनिवार्य मानी जाती है, जबकि कुछ में केवल वरमाला, सिंदूर या मंगलसूत्र की रस्में ही पर्याप्त होती हैं।

    कोर्ट ने इसी बिंदु को ध्यान में रखते हुए कहा कि देश के अलग-अलग हिस्सों में विवाह की परंपराएं भिन्न हैं, इसलिए एक ही मानक को सभी पर लागू नहीं किया जा सकता।

    फैसले का सामाजिक प्रभाव:
    इस ऐतिहासिक फैसले ने विवाह के पारंपरिक स्वरूप पर गहराई से विचार करने की जरूरत पर बल दिया है। अब तक कई मामलों में सप्तपदी न होने को विवाह निरस्त करने का आधार बनाया गया था, लेकिन अदालत ने यह साफ कर दिया है कि “विवाह केवल सात फेरों का नाम नहीं, बल्कि दो आत्माओं का मिलन है।”

    कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला उन जोड़ों के लिए भी राहत की तरह है, जिनका विवाह सामाजिक या पारंपरिक तरीकों से हुआ, लेकिन उन्होंने पंजीकरण या सप्तपदी जैसी रस्मों का औपचारिक पालन नहीं किया।

    वहीं, पारंपरिक विचारधारा से जुड़े लोगों का कहना है कि कोर्ट का यह फैसला विवाह की धार्मिक गरिमा को कमजोर कर सकता है। उनके अनुसार, सप्तपदी हिंदू धर्म में पति-पत्नी के बीच जीवनभर के बंधन की प्रतीक है और इसका पालन न करने पर विवाह अधूरा माना जाना चाहिए।

    हालांकि, कोर्ट ने अपने निर्णय में यह भी स्पष्ट किया कि सप्तपदी का महत्व कम नहीं किया जा सकता, लेकिन इसे वैवाहिक वैधता का एकमात्र कानूनी मापदंड नहीं बनाया जा सकता।

    कानूनी हलकों में नई बहस:
    इस फैसले ने कानून विशेषज्ञों और समाजशास्त्रियों के बीच नई चर्चा शुरू कर दी है। जहां कुछ इसे आधुनिक संवैधानिक सोच के अनुरूप निर्णय बता रहे हैं, वहीं अन्य इसे पारंपरिक मूल्यों में हस्तक्षेप के रूप में देख रहे हैं।

    लेकिन एक बात स्पष्ट है — अदालत ने विवाह की व्याख्या को केवल धार्मिक परंपराओं से ऊपर उठाकर मानवीय और सामाजिक दृष्टिकोण से देखने का साहस दिखाया है।

    अब आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि यह फैसला देश के अन्य अदालतों और विवाह से जुड़े कानूनी मामलों में किस तरह की दिशा तय करता है।

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