




देश की सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को प्रेसिडेंशियल रेफरेंस मामले पर सुनवाई पूरी कर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई की अगुवाई में चार जजों की संवैधानिक पीठ ने 10 दिनों तक चली मैराथन सुनवाई के बाद यह निर्णय लिया। 19 अगस्त से शुरू हुई सुनवाई में केंद्र सरकार, विपक्षी दलों, वकीलों और अन्य पक्षकारों ने अपने-अपने तर्क रखे। अब सभी की निगाहें सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिकी हैं, जिसका असर भारतीय राजनीति और संवैधानिक व्यवस्था पर दूरगामी हो सकता है।
प्रेसिडेंशियल रेफरेंस भारतीय संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से राय मांगने की प्रक्रिया है। जब कोई संवैधानिक या कानूनी प्रश्न अत्यधिक जटिल और विवादास्पद हो जाता है, तो राष्ट्रपति इस अनुच्छेद का उपयोग करके मामले को सुप्रीम कोर्ट के पास भेजते हैं। सुप्रीम कोर्ट अपनी व्याख्या और राय देकर स्थिति स्पष्ट करता है। हालांकि, यह राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन परंपरा रही है कि सरकार और संस्थाएं सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या का पालन करती हैं।
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा की चार सदस्यीय बेंच ने 19 अगस्त को इस प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर सुनवाई शुरू की थी। पिछले दस दिनों में अदालत ने विभिन्न पक्षों की दलीलें सुनीं, जिनमें केंद्र सरकार और विपक्षी दलों के वरिष्ठ वकील शामिल थे। कई नामी संवैधानिक विशेषज्ञों ने भी कोर्ट के सामने अपने विचार रखे।
केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि यह मामला संविधान की मूल संरचना और लोकतांत्रिक संस्थाओं की अखंडता से जुड़ा हुआ है। उनका कहना था कि राष्ट्रपति ने जो प्रश्न सुप्रीम कोर्ट के पास भेजा है, वह राष्ट्रीय महत्व का है और इसका समाधान केवल सर्वोच्च न्यायालय ही कर सकता है।
विपक्षी दलों की ओर से दलील दी गई कि इस रेफरेंस का इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है। उनका आरोप है कि सरकार संवैधानिक प्रावधानों की आड़ में न्यायपालिका पर दबाव बनाने की कोशिश कर रही है। कई वरिष्ठ वकीलों ने यह भी कहा कि इस प्रकार के रेफरेंस से लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच संतुलन बिगड़ सकता है।
संवैधानिक मामलों के जानकारों का मानना है कि यह रेफरेंस भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए एक कसौटी साबित होगा। विशेषज्ञों के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट का फैसला भविष्य में होने वाले संवैधानिक विवादों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत तैयार करेगा। यह फैसला न केवल न्यायपालिका बल्कि कार्यपालिका और विधायिका के अधिकारों की परिभाषा को भी प्रभावित कर सकता है।
गुरुवार को अंतिम सुनवाई के बाद सीजेआई बी.आर. गवई ने कहा कि सभी पक्षों की दलीलें सुन ली गई हैं और अब अदालत अपना फैसला सुरक्षित रख रही है। कोर्ट ने यह नहीं बताया कि फैसला कब तक सुनाया जाएगा, लेकिन माना जा रहा है कि आने वाले कुछ हफ्तों में यह ऐतिहासिक फैसला सामने आ सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के इस कदम के बाद राजनीतिक हलचल तेज हो गई है। सत्तारूढ़ दल और विपक्ष, दोनों ही अपने-अपने पक्ष में फैसले की उम्मीद कर रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि फैसले का असर आने वाले विधानसभा चुनावों और 2029 के लोकसभा चुनाव तक देखा जा सकता है।
यह मामला केवल एक कानूनी विवाद नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की मूल भावना और संविधान की आत्मा से जुड़ा हुआ है। अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्पष्ट और मजबूत होगा, तो यह लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को और बढ़ाएगा। वहीं, यदि फैसले को लेकर कोई असमंजस की स्थिति पैदा होती है, तो इसका असर जनता के विश्वास पर भी पड़ेगा।
अब पूरा देश सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहा है। कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि यह फैसला भारतीय संविधान के इतिहास में मील का पत्थर साबित हो सकता है। इस फैसले से यह भी तय होगा कि भविष्य में राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के बीच प्रेसिडेंशियल रेफरेंस की प्रक्रिया किस तरह इस्तेमाल होगी।