




कर्नाटक में जारी सोशल और एजुकेशनल कास्ट सर्वे के बीच एक अप्रत्याशित खबर ने राजनीतिक और सामाजिक हलकों में हलचल मचा दी है। इन्फोसिस के संस्थापक और देश के प्रतिष्ठित उद्योगपति नारायण मूर्ति तथा उनकी पत्नी, लेखिका और समाजसेवी सुधा मूर्ति ने इस सर्वे में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया है।
जानकारी के अनुसार, कर्नाटक पिछड़ा वर्ग आयोग की टीम जब उनके बेंगलुरु स्थित निवास पर सर्वे करने पहुंची, तो उन्हें यह कहकर वापस भेज दिया गया कि “वे पिछड़े समुदाय से नहीं आते” और “इसलिए ऐसे सर्वे में शामिल होना आवश्यक नहीं समझते।” यह घटना सामने आने के बाद से ही सोशल मीडिया और राजनीतिक गलियारों में इस पर जोरदार बहस छिड़ गई है।
राज्य सरकार द्वारा यह सर्वे सामाजिक और शैक्षिक आधार पर राज्य की जनसंख्या की वास्तविक संरचना का आकलन करने के लिए शुरू किया गया है। आयोग के अनुसार, यह सर्वे केवल पिछड़े वर्गों के लिए नहीं बल्कि सभी सामाजिक वर्गों — ऊंची जातियों, पिछड़े, अनुसूचित जाति और जनजातियों — से जुड़ा है। लेकिन इन्फोसिस फाउंडर और उनकी पत्नी का सर्वे में हिस्सा न लेना लोगों को हैरान कर गया है।
अधिकारियों ने बताया कि सर्वे टीम ने मूर्ति दंपति के घर पहुंचकर प्रक्रिया शुरू करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें यह कहकर रोक दिया गया कि “हम पिछड़े वर्ग से नहीं हैं, इसलिए हमारा डाटा शामिल करने की आवश्यकता नहीं है।” आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, “हमने उन्हें समझाने की कोशिश की कि यह सर्वे संपूर्ण समाज की जनगणना का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य किसी विशेष वर्ग की पहचान नहीं, बल्कि पूरे राज्य की सामाजिक स्थिति को समझना है। फिर भी उन्होंने भाग लेने से मना कर दिया।”
इस घटना ने राज्य में एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। विपक्षी दलों ने इसे “elitist mindset” बताते हुए आलोचना की है। वहीं कुछ लोग इसे “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का मामला मानते हैं और कहते हैं कि किसी को भी किसी सर्वे में शामिल होने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
कर्नाटक के समाजशास्त्रियों का कहना है कि नारायण मूर्ति और सुधा मूर्ति जैसे प्रभावशाली व्यक्तित्वों का सर्वे में शामिल होना समाज में सकारात्मक संदेश देता। इससे लोगों में यह विश्वास बनता कि सामाजिक समावेशन हर वर्ग का दायित्व है। लेकिन उनके इनकार से यह धारणा बन रही है कि ऊंचे तबके के लोग सामाजिक अध्ययन और समानता से दूरी बना रहे हैं।
कर्नाटक पिछड़ा वर्ग आयोग ने इस घटना की पुष्टि करते हुए कहा है कि सर्वे पूरी तरह से स्वैच्छिक है। कोई भी नागरिक यदि चाहे तो इसमें शामिल न होने का निर्णय ले सकता है। हालांकि, आयोग के एक अधिकारी ने कहा कि, “हम उम्मीद कर रहे थे कि देश के प्रतिष्ठित नागरिक इसमें भाग लेकर समाज को प्रेरित करेंगे। लेकिन उनका यह कदम निराशाजनक है।”
राज्य सरकार ने इस सर्वे को लेकर बड़े स्तर पर अभियान शुरू किया है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि यह सर्वे किसी जातीय भेदभाव को बढ़ावा देने के लिए नहीं, बल्कि वास्तविक सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को समझने के लिए किया जा रहा है। रिपोर्ट तैयार होने के बाद इसका उपयोग सरकारी योजनाओं और आरक्षण नीतियों के पुनर्गठन में किया जाएगा।
इस बीच, सुधा मूर्ति के करीबी सूत्रों ने बताया कि दंपति ने किसी राजनीतिक कारण से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत सिद्धांतों के आधार पर यह निर्णय लिया। उनका मानना है कि समाज में हर व्यक्ति की पहचान उसकी योग्यता और कार्य से होनी चाहिए, न कि जाति से। इसलिए वे ऐसे किसी भी सर्वे में शामिल होना उचित नहीं समझते जो जातिगत वर्गीकरण पर आधारित हो।
हालांकि, कई सामाजिक संगठनों ने नारायण मूर्ति और सुधा मूर्ति के इस रुख की आलोचना की है। दलित और पिछड़ा वर्ग संगठनों का कहना है कि जब समाज के प्रभावशाली लोग ऐसे सर्वे में हिस्सा नहीं लेते, तो यह सामाजिक एकता और पारदर्शिता की भावना को कमजोर करता है।
बेंगलुरु विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रमेश हिरेमठ ने कहा, “नारायण मूर्ति जैसे लोगों ने भारत को तकनीकी क्षेत्र में नई पहचान दी है, लेकिन यदि वे समाज के विविध हिस्सों की स्थिति समझने वाले सर्वे का हिस्सा बनने से इंकार करते हैं, तो यह सामाजिक संवाद के लिए सही संदेश नहीं है।”
उधर, कर्नाटक पिछड़ा वर्ग आयोग ने यह भी स्पष्ट किया है कि नारायण मूर्ति और सुधा मूर्ति के इनकार के बावजूद उनका डाटा सार्वजनिक अभिलेखों से एकत्र किया जा सकता है, ताकि राज्य की कुल सामाजिक संरचना के आंकड़ों में असंतुलन न रहे।
यह मामला अब केवल एक सर्वे तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह जाति, समानता और सामाजिक जिम्मेदारी जैसे विषयों पर गहन बहस का कारण बन गया है। एक ओर जहां कुछ लोग मूर्ति दंपति की स्थिति का सम्मान कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आलोचकों का कहना है कि समाज में समावेशिता की भावना तब तक अधूरी रहेगी जब तक हर वर्ग स्वयं को इस प्रक्रिया का हिस्सा नहीं मानता।