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बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में राजनीतिक दल अपने मतदाताओं से भावनात्मक जुड़ाव बनाने के लिए कई सांस्कृतिक और क्षेत्रीय हथकंडों का प्रयोग कर रहे हैं। मिथिलांचल और भोजपुरिया क्षेत्र की अपनी-अपनी सांस्कृतिक पहचान है और इसे चुनावी रणनीति में भुनाने की कोशिश हो रही है। लेकिन इन रणनीतियों का असर हमेशा वैसा नहीं हो रहा जैसा दलों को उम्मीद थी।
हाल ही में चर्चा में आई मामला मैथिली ठाकुर से जुड़ा है। मिथिलांचल में पाग, पान, माछ और मखाना सम्मान और सांस्कृतिक प्रतीक माने जाते हैं। मैथिली ठाकुर, जिन्हें भोजपुरी और मिथिला क्षेत्र में लोकप्रियता मिली है, को मिथिलांचल में सम्मान के प्रतीक पाग पहनाकर लोगों के बीच पेश करने का प्रयास किया गया। लेकिन यह रणनीति उनके लिए उल्टा पड़ गई। चुनावी माहौल में इस सांस्कृतिक प्रतीक को लेकर मतदाताओं की प्रतिक्रिया मिश्रित रही, जिससे मैथिली ठाकुर के लिए पाग प्रतीक चुनौती बन गया।
इसी तरह भोजपुरिया क्षेत्र में राजनीतिक दलों ने गमछा और लिट्टी-चोखा को अपनाकर मतदाताओं के साथ सीधे जुड़ने की कोशिश की। गमछा भोजपुरिया पहचान का प्रतीक है और लिट्टी-चोखा स्थानीय भोजन संस्कृति का हिस्सा। यह तरीका दलों द्वारा अपनाया गया ताकि वे बिना चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन किए मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचा सकें और भावनात्मक जुड़ाव बना सकें।
हालांकि, यह रणनीति अपेक्षित असर नहीं दिखा सकी। मतदाताओं ने इस कोशिश को केवल सांस्कृतिक प्रदर्शन के रूप में देखा और इसका असर मतदान निर्णय पर उतना गहरा नहीं पड़ा। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मिथिलांचल और भोजपुरिया क्षेत्र की जनता अब केवल प्रतीकों से प्रभावित नहीं होती बल्कि विकास, शिक्षा, रोजगार और स्थानीय मुद्दों पर ध्यान देती है।
चुनावी रणनीति में यह बदलाव स्पष्ट करता है कि सांस्कृतिक प्रतीक अब राजनीतिक दलों के लिए उतना कारगर हथियार नहीं रहे। मैथिली ठाकुर के मामले में पाग पहनाकर जुड़ाव बनाने की कोशिश उनके पक्ष में न होकर चुनौती बन गई। जबकि भोजपुरिया गमछा और लिट्टी-चोखा का प्रयोग भी उल्टा पड़ गया और दलों को यह समझना पड़ा कि जनता केवल सांस्कृतिक प्रतीकों से प्रभावित नहीं होती।
इस चुनाव में देखा जा रहा है कि राजनीतिक दलों को अब क्षेत्रीय पहचान के साथ-साथ वास्तविक मुद्दों को भी महत्व देना होगा। मतदाताओं ने अपने फैसलों में विकास और स्थानीय समस्याओं को प्राथमिकता दी है। राजनीतिक रणनीतियों को अब सिर्फ प्रतीकों और सांस्कृतिक हस्तियों तक सीमित रखना नाकाफी साबित हो रहा है।
चुनाव विश्लेषक बताते हैं कि मैथिली ठाकुर के मामले से स्पष्ट हो गया है कि मिथिलांचल और भोजपुरिया क्षेत्र के मतदाता केवल सांस्कृतिक पहचान से प्रभावित नहीं होंगे। राजनीतिक दलों को उनकी उम्मीदों और आवश्यकताओं के अनुरूप नीतियां बनानी होंगी। इसके बिना कोई भी सांस्कृतिक प्रतीक या हस्ती चुनावी सफलता की गारंटी नहीं दे सकती।
वहीं, राजनीतिक दल भी इस अनुभव से सीख रहे हैं कि सांस्कृतिक प्रतीक और क्षेत्रीय पहचान को रणनीति का हिस्सा बनाना ठीक है, लेकिन इसे सीधे विकास और मुद्दों से जोड़ना जरूरी है। वरना मतदाता इसे केवल दिखावा समझ कर चुनाव में सही प्रतिक्रिया देंगे।
बिहार चुनाव 2025 में यह घटना राजनीतिक दलों के लिए एक चेतावनी है। मैथिली ठाकुर और भोजपुरिया गमछा तथा लिट्टी-चोखा के प्रयासों से यह साफ हो गया कि सांस्कृतिक प्रतीक अकेले मतदाताओं को नहीं जोड़ सकते। चुनाव जीतने के लिए दलों को अब स्थानीय मुद्दों, विकास योजनाओं और जनता की वास्तविक समस्याओं पर फोकस करना होगा।

 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		






