




राजस्थान विधानसभा में हाल ही में पेश किए गए एंटी-कन्वर्ज़न बिल ने राजनीतिक और सामाजिक हलकों में व्यापक बहस छेड़ दी है। इस बिल के अनुसार, जबरन या अवैध तरीक़े से किए गए अंतरधार्मिक विवाह स्वतः निरस्त (annulled) माने जाएंगे। इसके अलावा, यदि किसी पर धर्मांतरण कराने का आरोप लगता है, तो सबूत पेश करने की जिम्मेदारी आरोपी (accused) पर होगी।
राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्तावित इस बिल के कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं:
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अवैध अंतरधार्मिक विवाह निरस्त: अगर विवाह धर्मांतरण को छिपाकर, दबाव डालकर या छल से किया गया है तो वह विवाह मान्य नहीं माना जाएगा।
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सबूत का बोझ आरोपी पर: सामान्य आपराधिक मामलों में सबूत का बोझ आरोप लगाने वाले पर होता है, लेकिन इस बिल के तहत आरोपी को यह साबित करना होगा कि धर्मांतरण स्वेच्छा से हुआ है।
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सरकारी अनुमति आवश्यक: कोई भी व्यक्ति अगर अपना धर्म बदलना चाहता है तो उसे पहले जिला मजिस्ट्रेट से अनुमति लेनी होगी। बिना अनुमति किया गया धर्मांतरण गैरकानूनी माना जाएगा।
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कड़ी सज़ा और जुर्माना: जबरन धर्मांतरण करने पर 3 से 5 साल की सज़ा और ₹50,000 तक जुर्माना। नाबालिग, महिलाओं या अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों का धर्मांतरण कराने पर 7 साल तक की सज़ा।
राजस्थान सरकार का कहना है कि इस कानून का उद्देश्य धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करना और जबरन धर्मांतरण को रोकना है।
सरकार का तर्क है कि कई बार “लव जिहाद” जैसे मामलों में धोखे से विवाह कर धर्मांतरण कराया जाता है, जिससे समाज में तनाव और असुरक्षा की स्थिति पैदा होती है।
इस बिल का विपक्षी दलों और मानवाधिकार संगठनों ने कड़ा विरोध किया है।
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विपक्ष का आरोप: यह कानून व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संविधान में दिए गए विवाह तथा धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
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मानवाधिकार कार्यकर्ता: उनका कहना है कि सबूत का बोझ आरोपी पर डालना “न्यायिक सिद्धांतों” के खिलाफ है और यह निर्दोष लोगों को भी सज़ा दिला सकता है।
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महिला संगठनों की चिंता: उनका मानना है कि इससे महिलाओं की स्वतंत्र पसंद पर असर पड़ेगा और उन्हें सामाजिक दबाव में जीना होगा।
कानूनी विशेषज्ञों के बीच भी यह बिल चर्चा का विषय बना हुआ है। कुछ वकील मानते हैं कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करता है। वहीं, समर्थकों का कहना है कि जबरन धर्मांतरण को रोकने के लिए यह कदम जरूरी है और अदालतों में इसकी संवैधानिकता की परीक्षा होगी।
राजस्थान का यह कदम न केवल राज्य में बल्कि देशभर में बहस को जन्म दे रहा है। समर्थकों का मानना है कि इससे “धर्मांतरण माफियाओं” पर रोक लगेगी और कमजोर वर्गों की सुरक्षा होगी। आलोचकों का कहना है कि यह कानून समाज को धार्मिक आधार पर और अधिक विभाजित कर सकता है और अंतरधार्मिक विवाह करने वाले जोड़ों को प्रताड़ित कर सकता है।
राजस्थान से पहले उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और हरियाणा जैसे राज्यों ने भी इसी तरह के एंटी-कन्वर्ज़न कानून लागू किए हैं।
इन राज्यों में भी अंतरधार्मिक विवाहों पर कड़ी पाबंदी और धर्मांतरण के लिए प्रशासनिक अनुमति की शर्त रखी गई है।
इस बिल को अगले साल होने वाले राज्य चुनावों से भी जोड़कर देखा जा रहा है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि यह कानून सत्तारूढ़ दल के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण का साधन बन सकता है और इसका सीधा असर चुनावी राजनीति पर पड़ सकता है।
राजस्थान का एंटी-कन्वर्ज़न बिल अभी से ही विवादों के केंद्र में है। एक ओर सरकार इसे समाज और धर्म की रक्षा का कानून बता रही है, वहीं विपक्ष और सामाजिक संगठनों का कहना है कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों का हनन है।
आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि अदालतें और जनता इस कानून को किस दृष्टि से स्वीकार करती हैं।