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दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण का स्तर एक बार फिर खतरनाक सीमा तक पहुंच गया है। हवा में जहर घुल चुका है और आसमान पर धुंध की मोटी परत छा गई है। ऐसे में दिल्ली सरकार ने इस बार एक अलग रास्ता अपनाया — क्लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) यानी कृत्रिम बारिश का सहारा। इसके लिए सरकार ने आईआईटी कानपुर के साथ एक समझौता किया। उम्मीद थी कि इस तकनीक से प्रदूषण को कुछ हद तक कम किया जा सकेगा, लेकिन प्रयोग का परिणाम उम्मीदों के अनुरूप नहीं निकला।
दिल्ली सरकार ने यह प्रोजेक्ट तब शुरू किया जब राजधानी में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) 450 से ऊपर चला गया था। हवा इतनी जहरीली हो गई कि लोगों को सांस लेने में तकलीफ होने लगी थी। इसी बीच, सरकार ने हवा को साफ करने के लिए बादलों से बारिश कराने का विचार सामने रखा।
क्लाउड सीडिंग की तकनीक कोई नई नहीं है। इसका उपयोग अमेरिका, चीन, दुबई और इज़राइल जैसे देशों में वर्षों से किया जा रहा है। लेकिन भारत में यह अभी शुरुआती स्तर पर है। इस प्रक्रिया में चांदी के आयोडाइड (Silver Iodide), सोडियम क्लोराइड (NaCl) या पोटैशियम आयोडाइड (KI) जैसे रसायन बादलों में छोड़े जाते हैं, जिससे वे संघनित होकर बारिश की बूंदों में बदल जाते हैं।
दिल्ली सरकार और आईआईटी कानपुर की साझेदारी:
इस प्रोजेक्ट के लिए दिल्ली सरकार ने आईआईटी कानपुर को मुख्य तकनीकी सहयोगी बनाया। आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर मनीष कुमार और उनकी टीम ने यह पूरा परीक्षण डिज़ाइन किया। दोनों के बीच हुए समझौते के तहत, क्लाउड सीडिंग की प्रक्रिया को दो चरणों में पूरा किया जाना था।
पहले चरण में तकनीकी सर्वे, मौसम का विश्लेषण और संभावित बादलों की पहचान की गई। दूसरे चरण में वास्तविक क्लाउड सीडिंग यानी रसायनों का छिड़काव किया गया। इस दौरान एक चार्टर विमान का इस्तेमाल किया गया, जो दिल्ली के ऊपर बादलों में जाकर रासायनिक मिश्रण छोड़ने वाला था।
कुल खर्च कितना हुआ:
सूत्रों के अनुसार, इस पूरे परीक्षण पर लगभग 15 करोड़ रुपये का खर्च आया। इसमें से करीब 9 करोड़ रुपये दिल्ली सरकार ने वहन किए, जबकि बाकी राशि आईआईटी कानपुर की अनुसंधान निधि से दी गई। इस राशि में तकनीकी सर्वे, विमान किराया, रासायनिक पदार्थों की लागत और मौसम निगरानी उपकरणों का खर्च शामिल था।
दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने कहा कि,
“हमने प्रदूषण कम करने के लिए हरसंभव विकल्प अपनाया। क्लाउड सीडिंग का यह प्रयोग वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अहम था, भले ही इसका परिणाम पूरी तरह सफल न हो।”
हालांकि, मौसम विभाग ने बताया कि प्रयोग के दिन दिल्ली के ऊपर बादल पूरी तरह तैयार नहीं थे। बादलों में नमी की कमी थी, जिसके कारण रसायनों के छिड़काव के बावजूद संघनन नहीं हो सका। यही वजह रही कि कृत्रिम बारिश नहीं हुई।
आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिकों का कहना है कि क्लाउड सीडिंग का असर तभी होता है जब वातावरण में कम से कम 60% नमी और घने बादल मौजूद हों। दिल्ली में प्रदूषण और ठंडी हवाओं के चलते बादलों में यह नमी स्तर बहुत कम था।
दिल्ली सरकार ने हालांकि इस नाकामी को प्रयोग का हिस्सा बताते हुए कहा है कि आने वाले महीनों में यह प्रक्रिया फिर से दोहराई जाएगी। इसके लिए जनवरी-फरवरी में मौसम की स्थिति का पुनः अध्ययन किया जाएगा।
प्रदूषण पर कितना असर पड़ा?
हालांकि बारिश नहीं हुई, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि रसायनों के छिड़काव से वातावरण में मौजूद कुछ भारी कण (PM2.5 और PM10) नीचे बैठ गए, जिससे प्रदूषण में 3 से 5% की अस्थायी गिरावट दर्ज की गई। यह राहत भले ही कम थी, लेकिन यह प्रयोग आने वाले समय में बेहतर तकनीकी सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है।
विवाद और आलोचना:
विपक्षी दलों ने इस प्रयोग को लेकर दिल्ली सरकार पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि करोड़ों रुपये खर्च करने के बावजूद कोई ठोस परिणाम नहीं मिला। वहीं, कुछ पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि क्लाउड सीडिंग को मौसम की स्थिति को ध्यान में रखकर ही करना चाहिए था।
पूर्व मौसम वैज्ञानिक डॉ. एस. के. शर्मा ने कहा,
“दिल्ली में इस समय वायुमंडलीय परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं। बादलों का घनत्व और तापमान दोनों ही कृत्रिम बारिश के लिए उपयुक्त नहीं थे।”
भविष्य की योजना:
दिल्ली सरकार ने आईआईटी कानपुर से दोबारा तकनीकी प्रस्ताव मांगा है। जनवरी 2026 में फिर से परीक्षण किए जाने की योजना है। इस बार रासायनिक मिश्रण की मात्रा और छिड़काव के समय में बदलाव किया जाएगा।
सरकार का दावा है कि आने वाले समय में अगर यह तकनीक सफल होती है तो इसे एनसीआर के अन्य शहरों — गुरुग्राम, नोएडा, फरीदाबाद और गाज़ियाबाद में भी लागू किया जा सकता है।
दिल्ली-एनसीआर में क्लाउड सीडिंग का यह पहला बड़ा प्रयोग था, जिसने भले ही बारिश नहीं करवाई, लेकिन इससे यह स्पष्ट हुआ कि भारत में कृत्रिम बारिश की तकनीक को स्थानीय मौसम की परिस्थितियों के अनुसार ढालने की जरूरत है।
दिल्ली के लोगों को भले ही फिलहाल राहत न मिली हो, लेकिन यह प्रयोग आने वाले समय में प्रदूषण से लड़ने की रणनीति का अहम हिस्सा बन सकता है।








