




उत्तराखंड की धामी सरकार का बहुप्रचारित ड्रीम प्रोजेक्ट अब राजनीतिक बहस के केंद्र में आ गया है। मीडिया रिपोर्ट्स में खुलासा हुआ है कि इस महत्वाकांक्षी परियोजना के लिए जिन तीन कंपनियों ने बोली (बिड) लगाई है, उनमें से हर एक में बालाकृष्णन की हिस्सेदारी पाई गई है। बालाकृष्णन वही उद्योगपति हैं जो पतंजलि समूह से लंबे समय से जुड़े हुए हैं। इस वजह से बोली प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं।
🔹 धामी सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट क्या है?
धामी सरकार ने इस प्रोजेक्ट को राज्य के आर्थिक विकास और औद्योगिक निवेश के लिए बेहद अहम बताया है। सरकार का दावा है कि इसके जरिए उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर रोज़गार के अवसर, बुनियादी ढांचे में सुधार और निवेशकों के लिए अनुकूल माहौल तैयार किया जाएगा।
हालांकि, अभी तक इस प्रोजेक्ट की आधिकारिक लागत और डिटेल्स सार्वजनिक नहीं की गई हैं। लेकिन अनुमान लगाया जा रहा है कि यह राज्य के इतिहास के सबसे बड़े औद्योगिक निवेश कार्यक्रमों में से एक होगा।
🔹 बोली प्रक्रिया और कंपनियों की हिस्सेदारी
मिली जानकारी के मुताबिक, इस प्रोजेक्ट के लिए कुल तीन कंपनियों ने रुचि दिखाई और औपचारिक रूप से बिड दायर की।
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खास बात यह है कि इन तीनों कंपनियों के शेयरहोल्डिंग स्ट्रक्चर में किसी न किसी स्तर पर बालाकृष्णन की प्रत्यक्ष या परोक्ष हिस्सेदारी दर्ज है।
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इसका अर्थ यह हुआ कि प्रतिस्पर्धा भले ही तीन कंपनियों के बीच दिख रही हो, लेकिन मालिकाना हक़ एक ही प्रभावशाली समूह के पास जा सकता है।
🔹 विपक्ष का आरोप
विपक्षी दलों ने इस खुलासे को धामी सरकार के खिलाफ बड़ा मुद्दा बना लिया है।
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कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने आरोप लगाया है कि यह पूरा मामला सरकार द्वारा अपने “करीबी उद्योगपतियों” को फायदा पहुँचाने का है।
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उनका कहना है कि यदि बोली प्रक्रिया में एक ही व्यक्ति की हिस्सेदारी वाली कंपनियाँ शामिल हों, तो यह “फ्री एंड फेयर कम्पटीशन” के सिद्धांत को खत्म कर देता है।
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विपक्ष ने यह भी मांग की है कि इस प्रोजेक्ट की बिडिंग प्रक्रिया की जांच कराई जाए और पूरे मामले को पारदर्शी बनाया जाए।
🔹 सरकार और अधिकारियों की प्रतिक्रिया
उत्तराखंड सरकार की तरफ से फिलहाल कोई ठोस सफाई सामने नहीं आई है। हालांकि, अधिकारियों का कहना है कि बोली प्रक्रिया नियम और कानून के तहत पूरी की गई है।
उन्होंने दावा किया कि जिन कंपनियों ने बिड लगाई, वे कानूनी रूप से अलग-अलग इकाइयाँ हैं और सरकार की भूमिका केवल प्रक्रिया को पूरा कराने तक सीमित है।
🔹 जनता और विशेषज्ञों की राय
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स्थानीय स्तर पर आम जनता का मानना है कि यदि यह प्रोजेक्ट पारदर्शी और ईमानदारी से लागू होता है तो यह प्रदेश के लिए गेमचेंजर साबित हो सकता है।
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लेकिन विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि यदि शुरुआत से ही बोली प्रक्रिया सवालों में है, तो आगे चलकर परियोजना पर भी अविश्वास कायम हो जाएगा।
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आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि इस तरह की परियोजनाओं में विश्वसनीयता और ट्रांसपेरेंसी निवेशकों को आकर्षित करने की पहली शर्त होती है।
🔹 राजनीतिक महत्व
उत्तराखंड में अगले कुछ वर्षों में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में इस प्रोजेक्ट को लेकर उठे विवाद का सीधा असर धामी सरकार की छवि और जनता के विश्वास पर पड़ सकता है।
अगर यह मुद्दा ज़्यादा तूल पकड़ता है, तो विपक्ष इसे चुनावी हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकता है।
धामी सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट, जो राज्य में विकास और निवेश का प्रतीक बन सकता था, अब पारदर्शिता पर सवालों के कारण विवादों में घिर गया है। तीनों कंपनियों में बालाकृष्णन की हिस्सेदारी का खुलासा न केवल राजनीतिक हलकों में हलचल पैदा कर रहा है, बल्कि इसने जनता और निवेशकों के बीच भी शंका की लकीर खींच दी है। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार इस विवाद से कैसे निपटती है।