




भारतीय सेना में अल्प सेवा कमीशन (SSC) पर कार्यरत महिला सैन्य अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने कहा कि गलवान संघर्ष, बालाकोट एयरस्ट्राइक और हालिया ऑपरेशन सिंदूर जैसे महत्वपूर्ण अभियानों में भाग लेने के बावजूद, उन्हें स्थायी कमीशन (Permanent Commission) देने में भेदभाव किया गया है।
इन अधिकारियों का कहना है कि केंद्र सरकार ने 2020 और 2021 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देशों का उल्लंघन किया है।
महिला अधिकारियों का आरोप
गुरुवार को सुनवाई के दौरान महिला अधिकारियों ने कहा उन्होंने सबसे जोखिमभरे और रणनीतिक अभियानों में हिस्सा लिया। उन्होंने अपने पुरुष समकक्षों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेवा की। इसके बावजूद, स्थायी कमीशन की प्रक्रिया में उन्हें पीछे रखा गया। सरकार ने कोर्ट के आदेशों को सही ढंग से लागू नहीं किया।
सुप्रीम कोर्ट का 2020 और 2021 का आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2020 और मार्च 2021 में आदेश दिया था कि महिला सैन्य अधिकारियों को भी स्थायी कमीशन का समान अवसर दिया जाएगा। सेवा, योग्यता और प्रदर्शन के आधार पर उन्हें पुरुष अधिकारियों की तरह निष्पक्ष मौका मिलना चाहिए।
महिला अधिकारियों का कहना है कि इन आदेशों का आंशिक पालन हुआ, लेकिन भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण अब भी जारी है।
महत्वपूर्ण अभियानों में योगदान
महिला सैन्य अधिकारियों ने अपने तर्कों को मजबूत करते हुए कोर्ट को याद दिलाया कि उन्होंने गलवान घाटी (2020) के दौरान भारत-चीन संघर्ष में सक्रिय भागीदारी निभाई। बालाकोट एयरस्ट्राइक (2019) की तैयारी और संचालन से जुड़े अभियानों में हिस्सा लिया। हाल ही में हुए ऑपरेशन सिंदूर में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उनका कहना है कि जब जिम्मेदारी और बलिदान की बात आई, तो उन्हें पुरुष अधिकारियों से अलग नहीं माना गया, लेकिन जब स्थायी सेवा अधिकार की बात आती है, तो उन्हें पीछे कर दिया जाता है।
केंद्र सरकार का रुख
केंद्र सरकार ने पहले यह तर्क दिया था कि स्थायी कमीशन पर निर्णय संगठनात्मक आवश्यकताओं और ऑपरेशनल जरूरतों के आधार पर लिया जाता है। चयन प्रक्रिया में मानक और कठोर मूल्यांकन शामिल होते हैं।
हालांकि महिला अधिकारियों का कहना है कि ये तर्क सिर्फ बहाना हैं और असल में यह लैंगिक भेदभाव का मामला है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा है और कहा कि महिला अधिकारियों की दलीलों पर गंभीरता से विचार किया जाएगा। कोर्ट यह देखेगा कि क्या वाकई पिछले आदेशों का उल्लंघन हुआ है। यदि आदेशों का पालन नहीं हुआ, तो सरकार को कारण बताना होगा।
लैंगिक समानता पर सवाल
यह मामला सिर्फ सेना में महिलाओं की भूमिका तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लैंगिक समानता और संवैधानिक अधिकारों से जुड़ा है। महिला अधिकारियों का कहना है कि संविधान उन्हें समान अवसर की गारंटी देता है। यदि वे सीमा पर लड़ सकती हैं और अभियान चला सकती हैं, तो उन्हें करियर में बराबरी क्यों नहीं मिल सकती?
विशेषज्ञों की राय
रक्षा विश्लेषक मानते हैं कि यह मामला सेना के भीतर संरचनात्मक सुधार की ओर संकेत करता है। विशेषज्ञों का कहना है कि स्थायी कमीशन न मिलने से महिला अधिकारियों का मनोबल प्रभावित हो सकता है। इसके विपरीत, समान अवसर मिलने से सेना और भी मजबूत और विविधतापूर्ण हो जाएगी।
समाज पर असर
यह मुद्दा समाज के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश जाएगा कि योग्यता, मेहनत और बलिदान का सम्मान होना चाहिए। महिला अधिकारी जब देश की रक्षा में अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं, तो उन्हें करियर में बराबरी का दर्जा देना ही न्यायसंगत है।
सुप्रीम कोर्ट में उठे इस मुद्दे ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या भारतीय सेना में महिलाओं को अभी भी बराबरी का हक नहीं मिल रहा?
महिला अधिकारियों ने यह साबित किया है कि वे न सिर्फ प्रशासनिक और रणनीतिक जिम्मेदारियाँ संभाल सकती हैं, बल्कि सीमा पर खड़े होकर बलिदान देने में भी पीछे नहीं हैं।
अब नज़र सुप्रीम कोर्ट पर है, जो यह तय करेगा कि क्या केंद्र सरकार ने सचमुच उसके आदेशों का उल्लंघन किया है और क्या महिला अधिकारियों को वह सम्मान और अवसर मिलेगा, जिसके वे हकदार हैं।