




महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित जिले गढ़चिरौली से एक ऐतिहासिक खबर आई है, जहां माओवादी संगठन के सबसे प्रभावशाली रणनीतिकारों में से एक मल्लोजुला वेणुगोपाल उर्फ भूपति ने 60 नक्सलियों के साथ पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। यह वही भूपति है जिसे कभी माओवादी आंदोलन का “थिंक टैंक” कहा जाता था और जो तीन दशकों से अधिक समय तक जंगलों में सक्रिय रहा।
भूपति, जिसे नक्सल दुनिया में ‘सोनू’ और ‘भूपति अन्ना’ के नाम से जाना जाता था, ने नक्सल संगठन में 35 सालों तक अहम जिम्मेदारियाँ निभाईं। वह एक समय सेंट्रल मिलिट्री कमीशन का सदस्य था और महाराष्ट्र-छत्तीसगढ़ सीमा क्षेत्र में माओवादी अभियानों की रणनीति तय करता था। उसका आत्मसमर्पण न केवल गढ़चिरौली पुलिस की बड़ी सफलता है, बल्कि भारत के सबसे लंबे समय से चल रहे वामपंथी उग्रवाद आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका भी माना जा रहा है।
भूपति का असली नाम मल्लोजुला वेणुगोपाल है। वह आंध्र प्रदेश के करीमनगर जिले के एक ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखता है। उसके परिवार का वैचारिक झुकाव वामपंथ की ओर था, और उसका बड़ा भाई मल्लोजुला कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी पहले से ही माओवादी आंदोलन में सक्रिय था। किशनजी को पश्चिम बंगाल में 2011 में सुरक्षा बलों ने मुठभेड़ में मार गिराया था। उसी के रास्ते पर चलकर भूपति ने भी जंगलों का रुख किया और 1989 में नक्सल आंदोलन से जुड़ गया।
कभी इंजीनियर बनने का सपना देखने वाला यह युवक धीरे-धीरे माओवादी संगठन के शीर्ष नेताओं में शुमार हो गया। बताया जाता है कि भूपति को युद्ध रणनीति, लॉजिस्टिक्स और संगठनात्मक ढांचे को संभालने में महारत हासिल थी। उसने माओवादियों की कई बड़ी योजनाओं को अंजाम दिया और दशकों तक सुरक्षा बलों के लिए सिरदर्द बना रहा।
भूपति का मुख्य प्रभाव क्षेत्र गढ़चिरौली, गोंदिया, बीजापुर और दंतेवाड़ा के इलाके रहे हैं। उसने यहां माओवादी कैडर को संगठित किया और ‘प्लाटून ऑपरेशन’ की निगरानी की, जिसमें छोटे-छोटे दल बनाकर पुलिस और सुरक्षा बलों पर हमले किए जाते थे।
भूपति संगठन में सेंट्रल कमेटी मेंबर (CCM) के रूप में कार्यरत था। उसके खिलाफ महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और ओडिशा में दर्जनों मामले दर्ज थे। उसके सिर पर कई राज्यों की सरकारों ने कुल मिलाकर 1 करोड़ रुपये का इनाम घोषित किया था।
सूत्रों के अनुसार, भूपति पिछले कुछ महीनों से संगठन में अंदरूनी मतभेदों और लगातार हो रहे सुरक्षा बलों के अभियानों से निराश था। उसके कई साथी एनकाउंटर में मारे जा चुके थे, जबकि संगठन की पकड़ धीरे-धीरे कमजोर पड़ रही थी।
गढ़चिरौली पुलिस और महाराष्ट्र एंटी-नक्सल फोर्स (C-60) की लगातार दबाव नीति ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई। अधिकारियों का कहना है कि भूपति पिछले कुछ समय से संवाद में था और अंततः उसने आत्मसमर्पण का फैसला किया।
गढ़चिरौली के एसपी नवनीत देशमुख ने कहा,
“भूपति का सरेंडर माओवादी आंदोलन के इतिहास में एक टर्निंग पॉइंट है। यह दिखाता है कि अब माओवादियों का मनोबल टूट चुका है और वे समाज की मुख्यधारा में लौटना चाहते हैं।”
महाराष्ट्र सरकार ने आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए विशेष पुनर्वास नीति लागू की है, जिसके तहत आत्मसमर्पण करने वालों को वित्तीय सहायता, शिक्षा, रोजगार और आवास की सुविधा दी जाती है। भूपति और उसके साथियों को भी इसी योजना के तहत मुख्यधारा में लौटने का मौका मिलेगा।
बताया जा रहा है कि सरकार ने भूपति जैसे वरिष्ठ नक्सलियों को “सोशल रीबिलिटेशन” में मदद करने की योजना बनाई है ताकि वे समाज के विकास में योगदान दे सकें।
भूपति का आत्मसमर्पण माओवादी संगठन के लिए मनोवैज्ञानिक झटका है। सुरक्षा एजेंसियों का कहना है कि पिछले दो वर्षों में महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की सीमा पर माओवादी गतिविधियों में लगभग 60% कमी आई है।
सुरक्षा विश्लेषकों के अनुसार, “भूपति जैसे अनुभवी कमांडर का जाना माओवादियों के रणनीतिक ढांचे को कमजोर करेगा। वह संगठन के सैन्य विंग का मुख्य दिमाग था, और उसके बाद संगठन में उस स्तर की नेतृत्व क्षमता फिलहाल नहीं है।”
भूपति का जीवन उसके भाई किशनजी की तरह ही रहा — दोनों ने आंध्र के साधारण परिवार से निकलकर हथियारों के दम पर व्यवस्था बदलने का सपना देखा। लेकिन अंततः एक भाई एनकाउंटर में मारा गया और दूसरा अब आत्मसमर्पण कर चुका है।
सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह आत्मसमर्पण एक नई दिशा की ओर इशारा करता है — जहां संवाद, विकास और शिक्षा हिंसा की जगह ले रहे हैं।