




तमिलनाडु विधानसभा में गुरुवार को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिला, जब मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने राज्यपाल आर. एन. रवि की टिप्पणियों पर कड़ा ऐतराज़ जताते हुए उन्हें संविधान और विधानसभा की प्रक्रिया के खिलाफ बताया। यह मामला “तमिलनाडु सिद्धा मेडिकल यूनिवर्सिटी विधेयक, 2025” को लेकर है, जिस पर राज्यपाल ने टिप्पणी करते हुए कुछ बिंदुओं पर संशोधन सुझाए थे।
विधानसभा में मुख्यमंत्री द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव में राज्यपाल की टिप्पणियों को अस्वीकार करते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया कि जब कोई विधेयक सदन के विचाराधीन होता है, तब केवल विधानसभा के सदस्य ही उसमें संशोधन प्रस्तावित कर सकते हैं, न कि राज्यपाल।
तमिलनाडु सरकार ने पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली “सिद्धा” को प्रोत्साहित करने हेतु एक विशेष विश्वविद्यालय स्थापित करने का निर्णय लिया है, जिसके तहत तमिलनाडु सिद्धा मेडिकल यूनिवर्सिटी की स्थापना प्रस्तावित की गई।
विधेयक में यह उल्लेख किया गया है कि इस विश्वविद्यालय का कुलाधिपति (Chancellor) राज्यपाल के स्थान पर मुख्यमंत्री होंगे। इसी बिंदु पर राज्यपाल रवि ने आपत्ति जताई और विधेयक को संशोधित करने के सुझाव दिए।
मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने कहा:
“राज्यपाल की यह टिप्पणी कि विधेयक को ‘उचित विचार’ की आवश्यकता है, न केवल सदन की प्रक्रिया को नकारती है, बल्कि यह लोकतांत्रिक प्रणाली और संविधान का उल्लंघन भी है।”
स्टालिन ने आगे स्पष्ट किया कि यह एक निधि विधेयक (Money Bill) है, जिसे राज्यपाल की अनुशंसा पर ही सदन में प्रस्तुत किया गया था। इसलिए राज्यपाल की यह टिप्पणी कि विधेयक में संशोधन आवश्यक हैं, संविधान की भावना के खिलाफ है।
स्वास्थ्य मंत्री एम. सुब्रमणियन ने विधेयक को पुनः सदन में प्रस्तुत किया और इसके बाद मुख्यमंत्री स्टालिन ने राज्यपाल की टिप्पणियों को सदन के रिकॉर्ड में दर्ज न करने का प्रस्ताव पेश किया।
विधानसभा ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर दिया, जिसमें कहा गया कि राज्यपाल की टिप्पणियों को न केवल खारिज किया जाता है, बल्कि उन्हें सदन की कार्यवाही का हिस्सा भी नहीं बनाया जाएगा।
यह मुद्दा केवल तमिलनाडु की राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका एक गंभीर संवैधानिक पहलू भी है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में स्पष्ट किया था कि राज्यपाल किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल की भूमिका सिर्फ “विलंब करने” या “विचार भेजने” तक सीमित नहीं हो सकती, उन्हें संविधान के दायरे में रहकर कार्य करना चाहिए।
इस संदर्भ में तमिलनाडु विधानसभा का यह प्रस्ताव एक न्यायिक निर्णय की पुष्टि और समर्थन के रूप में देखा जा रहा है।
तमिलनाडु की राजनीति में पिछले कुछ वर्षों से राज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई है।
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विश्वविद्यालयों में नियुक्तियाँ,
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विधेयकों की मंजूरी में देरी,
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और हाल के इस सिद्धा यूनिवर्सिटी विधेयक जैसे मामलों में
राज्यपाल रवि और मुख्यमंत्री स्टालिन के बीच सैद्धांतिक और संवैधानिक संघर्ष लगातार तेज़ हुआ है।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राज्यपाल इस प्रस्ताव के बाद क्या रुख अपनाते हैं।
क्या वे विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजेंगे, या फिर अंततः उसे मंजूरी देंगे?
कई राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह मामला केंद्र और राज्य के बीच की शक्तियों को लेकर आने वाले दिनों में एक मॉडल केस बन सकता है।
तमिलनाडु विधानसभा द्वारा राज्यपाल की टिप्पणियों को खारिज करना सिर्फ एक प्रतीकात्मक कदम नहीं है, बल्कि यह संविधान के मूल ढांचे, निर्वाचित सरकार की स्वायत्तता और विधायी प्रक्रिया की गरिमा की रक्षा का प्रयास है।