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‘एक दीवाने की दीवानियत’—नाम सुनते ही एक पुराने दौर की रोमांटिक फिल्म की झलक दिमाग में उभरती है। लेकिन जैसे ही फिल्म शुरू होती है, यह भ्रम तुरंत टूट जाता है। यह कहानी न प्रेम की है, न पागलपन की किसी मासूम झलक की। बल्कि यह उस पीढ़ी का आईना है जो प्यार को इमोशन नहीं, बल्कि एक्सपीरियंस की तरह जीती है। फिल्म की कहानी और ट्रीटमेंट देखकर साफ़ महसूस होता है कि मेकर्स ने Gen Z की नस पकड़ ली है — वो नस, जो लाइक्स, रील्स और सोशल मीडिया के नशे में धड़कती है।
फिल्म के ट्रेलर ने ही यह संकेत दे दिया था कि कुछ बड़ा और अलग आने वाला है, लेकिन जो आया, वह “अलग” से ज़्यादा “अजीब” साबित हुआ। कहानी की शुरुआत उम्मीदों से होती है, पर जल्द ही यह भावनाओं के रास्ते से उतरकर एक दिखावे के संसार में भटक जाती है। रोमांस के नाम पर हाइपरड्रामा और ‘दीवानगी’ के नाम पर ओवरएक्टिंग का मिश्रण कुछ ऐसा बनता है कि दर्शक खुद से पूछने लगता है—क्या यही प्यार है?
Gen Z का दीवानापन और सिनेमा की दिशा
आज का सिनेमा एक ऐसी दौड़ में शामिल हो चुका है जहाँ भावनाओं की गहराई को ट्रेंडिंग टॉपिक्स ने पीछे छोड़ दिया है। ‘एक दीवाने की दीवानियत’ इसका सटीक उदाहरण है। यह फिल्म मानो एक प्रयोगशाला है जिसमें Gen Z की भाषा, उनका संगीत, उनकी अस्थिर भावनाएँ, और उनकी डिजिटल लत को मिलाकर एक ‘मनोरंजन का कॉकटेल’ तैयार किया गया है।
फिल्म के कई दृश्य आपको झकझोर देते हैं—न इसलिए कि वे भावनात्मक हैं, बल्कि इसलिए कि वे इतने बनावटी लगते हैं कि यकीन नहीं होता कि कभी बॉलीवुड में ‘प्रेम’ नाम की चीज़ भी थी। वह प्रेम जो बारिश में भीगा करता था, जो पायल की झंकार में धड़कता था, जो नज़रों के मिलते ही लजाता था। आज उस प्रेम की जगह ली है “स्नैपचैट फिल्टर” वाले रिश्तों ने, और ‘एक दीवाने की दीवानियत’ इसे खुलेआम दिखाती है।
सैयारा की इज्जत बढ़ गई, पर सिनेमा की घट गई
फिल्म की एकमात्र राहत है इसका म्यूज़िक। खासकर गीत ‘सैयारा’, जो पुराने दर्शकों को थोड़ा सुकून देता है। इस गाने ने फिल्म को एक पल के लिए क्लासिक अहसास जरूर दिया है। लेकिन यह राहत अल्पकालिक है, क्योंकि इसके बाद फिल्म फिर उसी डिजिटल नशे की दुनिया में लौट जाती है जहाँ प्रेम नहीं, “पॉप कल्चर” का जश्न मनाया जाता है।
‘सैयारा’ के बोल सुनकर मन में कहीं पुरानी फिल्मों का रोमांस जीवित हो उठता है — वही शुद्ध, सच्चा और धीरे-धीरे बढ़ता प्रेम। पर दुर्भाग्य से, यह फिल्म उस एहसास को पूरी तरह भूल चुकी है। यह कहानी दीवानगी के नाम पर आधुनिकता की आड़ में भावनाओं का मज़ाक उड़ाती है।
अभिनय और निर्देशन: मंशा अच्छी थी, मंज़िल खो गई
कलाकारों ने मेहनत तो की है, पर स्क्रिप्ट ने उन्हें वह स्पेस ही नहीं दिया जिसमें भावनाएँ सांस ले सकें। नायक का दीवानापन नकली लगता है और नायिका की उलझन बेमानी। निर्देशक का इरादा शायद एक नई पीढ़ी की आवाज़ दिखाने का था, लेकिन वह आवाज़ इतनी तेज़ और उलझी हुई है कि संदेश सुनाई ही नहीं देता।
फिल्म में संवाद आधुनिक हैं, पर उनमें आत्मा नहीं है। हर दृश्य ऐसा लगता है जैसे सोशल मीडिया क्लिप के लिए बनाया गया हो—लाइट्स, फिल्टर और ओवरड्रामा से भरा हुआ।
यह लेख किसी फिल्म की आलोचना से ज़्यादा, एक भावनात्मक विनती है। सिनेमा, जो कभी दिलों को जोड़ने का ज़रिया था, अब एल्गोरिद्म की दया पर निर्भर हो गया है। ‘एक दीवाने की दीवानियत’ हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या अब भी कोई निर्देशक ऐसा है जो ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ या ‘आशिकी’ जैसे प्रेम की सच्चाई दिखाने की हिम्मत रखता हो?
Gen Z की दीवानगी अपनी जगह सही है, लेकिन क्या उस दीवानगी में प्रेम का अस्तित्व बचा है? यह फिल्म यही सवाल हमारे सामने छोड़ जाती है—एक लंबी सांस के साथ, और एक पुरानी याद की तरह जो अब बस सपना लगती है।
‘एक दीवाने की दीवानियत’ एक ट्रेंडी, स्टाइलिश लेकिन भावनात्मक रूप से खाली फिल्म है। यह आज की पीढ़ी के मानसिक और भावनात्मक भ्रम का प्रतीक है। और शायद अब समय आ गया है कि फिल्ममेकर्स, दर्शकों और खुद समाज को यह स्वीकार करना होगा — हमें हमारे पुराने ‘प्रेम’ लौटा दो।








