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महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर से जोश में है, क्योंकि राज्य में निकाय चुनावों की घोषणा जल्द होने की संभावना है। इन चुनावों में सभी दलों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। विधानसभा चुनावों में महायुति गठबंधन — यानी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), शिवसेना (एकनाथ शिंदे गुट) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार गुट) — को जबरदस्त सफलता मिलने के बाद अब यह गठबंधन स्थानीय स्तर पर अपनी पकड़ मजबूत करने में जुटा है। लेकिन इस बार समीकरण कुछ बदले हुए हैं।
मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की स्थिति इन चुनावों में पहले की तुलना में कहीं अधिक सशक्त नजर आ रही है। वजह है शिवसेना की जमीनी एकता और ठाकरे गुट की पुनर्गठन की रणनीति, जिसने अप्रत्यक्ष रूप से शिंदे को डबल राजनीतिक फायदा पहुंचाया है। मुंबई और ठाणे जैसे प्रमुख नगर निगम क्षेत्रों में, जहां पहले बीजेपी निर्णायक भूमिका में रहती थी, अब शिंदे की बढ़ती लोकप्रियता और संगठन विस्तार ने उसे बैकफुट पर ला दिया है।
मुंबई महानगरपालिका (BMC) और ठाणे नगर निगम हमेशा से महाराष्ट्र की राजनीति का केंद्र रहे हैं। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना ने दशकों तक इन इलाकों में अपना दबदबा बनाए रखा। लेकिन 2022 में जब एकनाथ शिंदे ने बगावत कर बीजेपी के साथ गठबंधन किया, तो राज्य की राजनीतिक दिशा पूरी तरह बदल गई। अब, दो साल बाद, जब स्थानीय निकाय चुनाव करीब हैं, तो शिंदे ने अपने गढ़ ठाणे और आसपास के इलाकों में पार्टी को नए सिरे से संगठित कर लिया है।
ठाकरे गुट की तरफ से इस बार संगठन को एकजुट रखने और कार्यकर्ताओं की नाराजगी को दूर करने की मुहिम तेज़ की गई है। दिलचस्प बात यह है कि इससे शिंदे को भी अप्रत्यक्ष लाभ हो रहा है। दरअसल, ठाकरे गुट की सक्रियता ने शिवसैनिकों के बीच उत्साह बढ़ाया है, जिससे शिवसेना नाम का ब्रांड फिर से मजबूत हो रहा है — और यह मजबूती महायुति में शिंदे गुट की राजनीतिक ताकत को और बढ़ा रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि शिंदे की सबसे बड़ी रणनीति यही है कि वे बीजेपी के साथ गठबंधन में रहते हुए भी अपनी पार्टी की स्वतंत्र पहचान बनाए रखें। बीजेपी, जो पहले BMC चुनावों में नेतृत्व की भूमिका चाहती थी, अब शिंदे के क्षेत्रीय प्रभाव को देखते हुए बैकफुट पर आ गई है। मुंबई और ठाणे में कई वार्डों में स्थानीय नेता खुले तौर पर शिंदे गुट के प्रत्याशियों के साथ जाने की तैयारी में हैं, जबकि बीजेपी को अंदरूनी विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
बीजेपी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने भी माना है कि शिंदे ने अपने संगठन को मजबूती देने के लिए पिछले एक साल में व्यापक स्तर पर काम किया है। उन्होंने ठाणे, कल्याण, डोंबिवली, भिवंडी और अंबरनाथ जैसे क्षेत्रों में लगातार दौरे किए हैं और स्थानीय स्तर पर जनता से सीधा संवाद स्थापित किया है। वहीं, बीजेपी के नेताओं का कहना है कि वे अभी भी सीट बंटवारे और रणनीति पर आखिरी फैसला नहीं लेना चाहते, जब तक कि राज्य चुनाव आयोग की अधिसूचना जारी नहीं होती।
राज्य में विपक्षी दलों की भी गतिविधियां तेज़ हैं। उद्धव ठाकरे का गुट ‘महाराष्ट्र बचाओ’ अभियान के तहत मुंबई और ठाणे में बड़े जनसंपर्क कार्यक्रम कर रहा है। ठाकरे समर्थक नेताओं का कहना है कि वे जनता के बीच “वास्तविक शिवसेना” की छवि मजबूत करना चाहते हैं। यह सक्रियता भी शिंदे के लिए फायदेमंद साबित हो रही है, क्योंकि इससे विपक्ष का फोकस सीधे महायुति पर नहीं, बल्कि दोनों शिवसेनाओं की प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित हो गया है।
राजनीतिक रूप से देखा जाए तो शिंदे ने जिस चतुराई से खुद को बीजेपी और ठाकरे गुट के बीच एक संतुलनकारी चेहरा बनाया है, वह उन्हें महाराष्ट्र की राजनीति में निर्णायक स्थिति में पहुंचा रहा है। निकाय चुनावों में अगर महायुति को बेहतर परिणाम मिलते हैं, तो इसका श्रेय बड़े पैमाने पर एकनाथ शिंदे को मिलेगा, जबकि किसी भी असफलता का राजनीतिक भार बीजेपी को उठाना पड़ेगा।
मुंबई में भी समीकरण दिलचस्प हैं। बीएमसी में पिछले 30 सालों से शिवसेना का दबदबा रहा है, लेकिन अब इस बार महायुति के भीतर टिकट बंटवारे को लेकर खींचतान की आशंका है। बीजेपी चाहती है कि मुंबई में उसका मेयर बने, जबकि शिंदे गुट इस बार अधिक सीटों की मांग कर रहा है। इस टकराव के बीच ठाकरे गुट एकजुट होकर विपक्षी वोट बैंक को आकर्षित करने की कोशिश में है।
राज्य के राजनीतिक माहौल पर नजर डालें तो यह साफ है कि शिंदे अब केवल मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली क्षेत्रीय नेता बन चुके हैं। उन्होंने अपने संगठन को ठाणे से लेकर मराठवाड़ा तक विस्तारित किया है और यह सुनिश्चित किया है कि शिवसेना (शिंदे गुट) को जमीनी स्तर पर बीजेपी की छाया में न देखा जाए।
इस पूरे परिदृश्य में बीजेपी को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना पड़ रहा है। क्योंकि अगर शिंदे मुंबई और ठाणे में अपनी पकड़ बनाए रखते हैं, तो यह आने वाले विधानसभा चुनावों के लिए भी बीजेपी के लिए चुनौती बन सकता है।
राजनीतिक समीकरणों की इस उलझन में एकनाथ शिंदे फिलहाल सबसे मजबूत स्थिति में हैं। ठाकरे गुट की एकता और जनता में बढ़ती जागरूकता ने उन्हें न केवल जनता का बल्कि संगठन का भी समर्थन दिया है। अब देखना यह है कि निकाय चुनावों के नतीजे इस राजनीतिक शक्ति संतुलन को कैसे नया आकार देते हैं।








