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सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज अभय एस. ओका ने एक बार फिर धार्मिक स्वतंत्रता, पर्यावरण और सामाजिक जिम्मेदारी पर गहराई से जुड़ा सवाल उठाया है। उन्होंने पूछा है कि क्या पटाखे फोड़ना किसी धर्म का अनिवार्य हिस्सा है? यह टिप्पणी उन्होंने तब की जब देश में त्योहारों, विशेषकर दिवाली और क्रिसमस जैसे अवसरों पर पटाखों के प्रयोग को लेकर बहस तेज हो गई है।
पूर्व न्यायाधीश का कहना है कि धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि किसी व्यक्ति को अपने उत्सव या रीति-रिवाज के नाम पर दूसरों को असुविधा या कष्ट पहुँचाने का अधिकार मिल जाए। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि धर्म और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना अब समय की सबसे बड़ी जरूरत है।
जस्टिस अभय ओका, जो पर्यावरण और मौलिक अधिकारों के मामलों पर अपने सख्त रुख के लिए जाने जाते हैं, ने कहा कि “दिवाली, क्रिसमस या किसी भी त्योहार का उद्देश्य खुशियां बांटना है, न कि दूसरों के जीवन में परेशानी पैदा करना।” उन्होंने यह भी कहा कि पटाखों से निकलने वाला धुआं और आवाज न केवल वायु और ध्वनि प्रदूषण बढ़ाते हैं, बल्कि इसका असर बुजुर्गों, बच्चों, बीमार और जानवरों पर भी गंभीर रूप से पड़ता है।
पूर्व जस्टिस ने अपने संबोधन में सवाल उठाया कि क्या धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में किसी ऐसी गतिविधि की अनुमति दी जा सकती है, जो दूसरों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए? उन्होंने कहा कि “अगर कोई परंपरा दूसरों को पीड़ा देती है, तो उसे धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं माना जा सकता।”
उन्होंने अजान के शोर पर भी टिप्पणी करते हुए कहा कि हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सार्वजनिक स्थानों पर ध्वनि प्रदूषण को नजरअंदाज कर दिया जाए। उन्होंने कहा कि “अजान सुनना जरूरी है, लेकिन इतनी तेज आवाज में नहीं कि दूसरों की नींद और स्वास्थ्य पर असर पड़े।”
जस्टिस ओका की यह टिप्पणी ऐसे समय आई है जब देशभर में पटाखों पर रोक को लेकर विभिन्न राज्य सरकारों और नागरिकों के बीच बहस जारी है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कई राज्यों को यह सुनिश्चित करने के निर्देश दिए थे कि केवल ग्रीन क्रैकर्स का ही उपयोग किया जाए, ताकि प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सके।
जस्टिस ओका ने कहा कि संविधान हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता (Article 25) का अधिकार देता है, लेकिन इस स्वतंत्रता के साथ यह जिम्मेदारी भी जुड़ी है कि इससे दूसरे लोगों के अधिकारों का उल्लंघन न हो। उन्होंने कहा कि “जब कोई उत्सव दूसरों के लिए परेशानी का कारण बन जाता है, तब हमें यह सोचने की जरूरत है कि क्या यह वास्तव में धार्मिक आस्था है या सिर्फ सामाजिक प्रथा।”
उन्होंने यह भी जोड़ा कि “धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ किसी भी गतिविधि को अंधाधुंध करने की छूट नहीं है। अगर किसी रिवाज का परिणाम समाज के कमजोर वर्ग, बच्चों, बुजुर्गों या पर्यावरण के नुकसान के रूप में सामने आता है, तो इसे धर्म का हिस्सा नहीं माना जा सकता।”
जस्टिस ओका के इस बयान पर सोशल मीडिया पर भी प्रतिक्रियाएँ आने लगी हैं। कुछ लोगों ने उनके विचारों का समर्थन करते हुए कहा कि यह समय है जब समाज को धर्म और जिम्मेदारी के बीच संतुलन बनाना सीखना चाहिए। वहीं, कुछ लोगों का मानना है कि परंपराओं में बदलाव समाज की संस्कृति को कमजोर करता है।
हालाँकि, पर्यावरण विशेषज्ञों और डॉक्टरों ने जस्टिस ओका की बात का समर्थन किया है। उनका कहना है कि हर साल दिवाली और नए साल जैसे त्योहारों के दौरान दिल्ली, मुंबई, पटना और लखनऊ जैसे बड़े शहरों का AQI खतरनाक स्तर तक पहुँच जाता है, जिससे सांस लेने में कठिनाई, अस्थमा और हार्ट संबंधी बीमारियाँ बढ़ जाती हैं।
जानवरों पर भी पटाखों के धमाकों का गंभीर प्रभाव पड़ता है। कई बार वे डर के मारे भाग जाते हैं, घायल हो जाते हैं या मर जाते हैं। जस्टिस ओका ने इस पर चिंता जताते हुए कहा कि “हम अपने उत्सवों की खुशी के लिए उन जीवों को कष्ट नहीं दे सकते, जो हमारे समाज का ही हिस्सा हैं।”
उन्होंने यह सुझाव भी दिया कि त्योहारों को मनाने के वैकल्पिक, पर्यावरण-संवेदनशील और शांतिपूर्ण तरीके अपनाने चाहिए। जैसे – दीयों से रोशनी करना, संगीत के माध्यम से उत्सव मनाना या वृक्षारोपण जैसी गतिविधियों से खुशी बाँटना।
जस्टिस ओका के बयान का मूल संदेश यही है कि “धार्मिक स्वतंत्रता और पर्यावरण संरक्षण एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं।” हमें अपने रीति-रिवाजों को इस तरह से निभाना चाहिए कि उसमें न तो किसी की श्रद्धा आहत हो और न ही किसी की सेहत या शांति।
अंत में, उन्होंने कहा कि “भारत जैसे विविधता वाले देश में सबसे बड़ी ताकत यह है कि यहां हर धर्म, हर समुदाय और हर व्यक्ति को अपनी आस्था के अनुसार जीने की स्वतंत्रता है। लेकिन यह स्वतंत्रता तभी सार्थक है जब हम दूसरों के अधिकारों और पर्यावरण की मर्यादा का सम्मान करें।”







