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देशभर में सड़क परिवहन मंत्रालय ने नया बस बॉडी कोड लागू कर दिया है, जिसका उद्देश्य बसों की सुरक्षा और संरचना को लेकर सख्त मानक तय करना है। यह नीति 1 नवंबर 2025 से पूरे भारत में प्रभावी हो गई है। इसके तहत बसों में आग से सुरक्षा, आपातकालीन निकासी, सीट बेल्ट, और संरचनात्मक मजबूती जैसे मानकों को और सख्त किया गया है।
हालांकि, नई नीति के लागू होने के कुछ ही दिनों बाद राजस्थान के जैसलमेर बस हादसे ने इस कोड की प्रभावशीलता पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। जैसलमेर में एक एसी स्लीपर बस में आग लगने से 26 यात्रियों की मौत हो गई, जिससे पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। यह हादसा केवल तकनीकी विफलता नहीं, बल्कि सुरक्षा मानकों के पालन में गंभीर चूक का परिणाम माना जा रहा है।
सरकार का दावा है कि नया बस बॉडी कोड यात्रियों की सुरक्षा को प्राथमिकता देने के लिए बनाया गया है। इसमें AIS 052 Rev 2 और AIS 119 जैसे उन्नत मानकों को शामिल किया गया है। इन मानकों के अनुसार अब हर बस में फायर रिटार्डेंट मटीरियल, आपातकालीन खिड़कियां, फायर सप्रेशन सिस्टम, और सेफ्टी अलार्म अनिवार्य हैं। इसके अलावा, निर्माण करने वाले बॉडी बिल्डर्स को अब मंत्रालय से अधिकृत सर्टिफिकेशन लेना जरूरी होगा।
लेकिन सवाल यह है कि जब नियम इतने स्पष्ट हैं, तो फिर ऐसी दुर्घटनाएं क्यों हो रही हैं? विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में सबसे बड़ी चुनौती “नियमों का पालन” है। छोटे बस ऑपरेटर और बॉडी बिल्डर्स अक्सर लागत बचाने के लिए सुरक्षा मानकों से समझौता कर लेते हैं। जांच में पाया गया कि जैसलमेर की जिस बस में आग लगी, उसमें न तो फायर अलार्म था और न ही इमरजेंसी एग्जिट गेट पूरी तरह काम कर रहे थे।
पूर्व परिवहन अधिकारी आर.के. गोयल का कहना है —
“नियम बनाना आसान है, लेकिन उनके पालन के लिए जमीनी स्तर पर सख्ती जरूरी है। जब तक बसों की नियमित जांच और रजिस्ट्रेशन के दौरान टेक्निकल वेरिफिकेशन को अनिवार्य नहीं किया जाएगा, तब तक ऐसी घटनाएं होती रहेंगी।”
नए कोड के तहत राज्यों को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वे अपने-अपने क्षेत्र में चलने वाली बसों की समय-समय पर जांच करें। लेकिन कई राज्यों में न तो पर्याप्त टेक्निकल स्टाफ है, न ही मॉनिटरिंग के लिए आवश्यक लैब सुविधाएं। इससे कई बार बसें पुराने या खराब उपकरणों के साथ सड़कों पर दौड़ती रहती हैं।
सड़क परिवहन मंत्रालय का कहना है कि वह आने वाले महीनों में राष्ट्रीय स्तर पर ई-ऑडिट सिस्टम लागू करेगा। इस प्रणाली के तहत हर बस की डिटेल और उसका फिटनेस सर्टिफिकेट ऑनलाइन ट्रैक किया जा सकेगा। मंत्रालय यह भी चाहता है कि आने वाले समय में बसों में IoT आधारित सेफ्टी सेंसर लगाए जाएं, जो किसी भी आग या मैकेनिकल खराबी का अलर्ट तुरंत कंट्रोल रूम तक भेज दें।
वहीं, आम जनता और यात्री संगठन सरकार से यह मांग कर रहे हैं कि बस कंपनियों और बॉडी बिल्डर्स पर कठोर दंडात्मक कार्रवाई की जाए। अगर कोई कंपनी या ऑपरेटर सुरक्षा नियमों का पालन नहीं करता है तो उसका लाइसेंस तुरंत रद्द होना चाहिए।
दिलचस्प बात यह है कि भारत में हर साल करीब 12,000 से अधिक बस हादसे होते हैं, जिनमें 5,000 से ज्यादा लोगों की मौत होती है। इनमें से ज्यादातर हादसे आग लगने, ब्रेक फेल होने, या ओवरलोडिंग जैसी वजहों से होते हैं।
नए बस बॉडी कोड से उम्मीद थी कि ये घटनाएं कम होंगी, लेकिन जैसलमेर जैसी घटनाएं यह दिखाती हैं कि जब तक निरीक्षण और प्रवर्तन प्रणाली मजबूत नहीं होगी, तब तक केवल नियम बनाना पर्याप्त नहीं है।
फिलहाल, सड़क परिवहन मंत्रालय ने इस हादसे के बाद एक विशेष जांच टीम गठित की है, जो यह पता लगाएगी कि बस की संरचना में कहां कमी थी और क्या कंपनी ने नए बस बॉडी कोड के प्रावधानों का पालन किया था या नहीं।
भारत जैसे विशाल देश में जहां हर दिन लाखों बसें सड़कों पर दौड़ती हैं, वहां केवल कानून बनाना ही नहीं बल्कि उसे लागू करना ही सबसे बड़ी चुनौती है। जैसलमेर हादसे ने सरकार और जनता दोनों को यह याद दिलाया है कि सुरक्षा के नाम पर समझौता कभी भी घातक साबित हो सकता है।

 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		






