




राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS), जिसकी स्थापना 1925 में हुई थी, अब अपने 100 साल पूरे करने के करीब है। यह संगठन भारतीय समाज और राजनीति में अपनी गहरी पैठ बना चुका है, खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी (BJP) के वैचारिक आधार के रूप में। लेकिन अब जब समाज, पीढ़ियाँ और राजनीतिक चेतना बदल रही है, RSS के मौजूदा प्रमुख मोहन भागवत इसे एक नए रूप में ढालने की कोशिश कर रहे हैं।
यह कोशिश आसान नहीं है, क्योंकि जिस विचारधारा पर RSS दशकों से टिका हुआ है — वह एक ठोस ‘हिंदुत्व’ पहचान के इर्द-गिर्द रची गई है। अब उसी विचारधारा को और अधिक समावेशी और आधुनिक रूप देने की कोशिश की जा रही है। यही वह नाजुक संतुलन है जिसे विश्लेषकों ने “Walking a Thin Saffron Line” कहा है।
मोहन भागवत का हालिया भाषण और उनके सार्वजनिक विचार पहले की तुलना में कुछ अलग दिखते हैं। उन्होंने यह कहा कि “भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है” — लेकिन इसके पीछे उनका आशय ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ से था, न कि धार्मिक पहचान से। उन्होंने स्पष्ट किया कि RSS का मतलब यह नहीं कि हम किसी की धार्मिक स्वतंत्रता या पहचान को बाधित करें।
यह रुख परंपरागत कट्टरपंथी हिंदुत्व से थोड़ा हटकर दिखता है। भागवत ने यह भी कहा है कि अगर कोई खुद को ‘हिंदू’ नहीं मानना चाहता, और सिर्फ ‘भारतीय’ कहलाना चाहता है, तो संघ को कोई आपत्ति नहीं।
यह विचार पहले के संघ नेतृत्व के बयानों से काफी अलग है, और यह दर्शाता है कि RSS अब खुद को व्यापक और सांस्कृतिक रूप से उदार बनाना चाहता है।
मोहन भागवत ने जाति-व्यवस्था पर भी कुछ अभूतपूर्व टिप्पणियाँ की हैं। उन्होंने कहा कि “जाति ईश्वर की बनाई चीज़ नहीं है, यह समाज की बनाई हुई विकृति है।” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि समाज को समानता के रास्ते पर चलना चाहिए।
RSS की ओर से ऐसी बातें पहले कम ही सुनने को मिली थीं। इस परिप्रेक्ष्य में यह एक महत्वपूर्ण बयान है, खासकर तब जब संघ पर हमेशा यह आरोप लगता रहा है कि वह सवर्ण वर्चस्ववादी सोच को पोषित करता है।
संघ प्रमुख ने हाल ही में मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मुलाकातें की हैं। उन्होंने सार्वजनिक मंचों से भी यह कहा है कि भारत के मुसलमान भी उतने ही भारतीय हैं जितने कोई और। उन्होंने यह तक कहा कि “हिंदू-मुस्लिम एकता” नहीं, बल्कि “एकता तो पहले से है” — यह भाषायी संतुलन दिखाता है कि भागवत अब ‘ध्रुवीकरण’ की बजाय ‘सांस्कृतिक सामंजस्य’ की भाषा बोलना चाहते हैं।
हालाँकि भागवत के विचारों में बदलाव स्पष्ट है, लेकिन संघ के ज़मीनी कार्यकर्ताओं और विचारधारात्मक ढाँचे में यह बदलाव कितना नीचे तक गया है, यह एक बड़ा सवाल है।
RSS आज भी भारत के कई हिस्सों में स्कूलों, शाखाओं और संगठनों के माध्यम से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रचार करता है। वहाँ पर अभी भी एक कठोर हिंदुत्व छवि को बढ़ावा दिया जाता है।
ऐसे में, मोहन भागवत का बदला हुआ रुख क्या सिर्फ सार्वजनिक मंचों तक सीमित रहेगा, या इसका वास्तविक असर RSS की कार्यशैली और नीतियों में भी दिखेगा — यह देखना बाकी है।
RSS का यह संभावित ‘मेकओवर’ भाजपा की रणनीतियों को भी प्रभावित कर सकता है। भाजपा, जो लंबे समय से मंदिर-मुस्लिम एजेंडे पर चलती आई है, अब विकास, वंचित वर्गों और राष्ट्रीयता जैसे मुद्दों पर ज़ोर दे रही है।
भागवत के ‘मध्यम मार्ग’ के संकेत भाजपा को भी एक नरम हिंदुत्व की ओर ले जाने में सहायक हो सकते हैं — खासकर शहरी युवाओं और उदार मध्यम वर्ग को आकर्षित करने के लिए।
सबसे बड़ा सवाल यही है — क्या मोहन भागवत का यह नया रूप संघ के भविष्य का स्थायी रोडमैप बनेगा या यह सिर्फ एक छवि-सुधार का प्रयास है?
यह तब और भी जटिल हो जाता है जब हम सोचते हैं कि संघ में नेतृत्व परिवर्तन कब होगा, और अगला सरसंघचालक इन विचारों को किस तरह आगे बढ़ाएगा।
RSS की कोशिश है कि वह 21वीं सदी के भारत के साथ कदम से कदम मिला सके। समाज अब पहले जैसा नहीं रहा — युवा वर्ग तकनीक, शिक्षा और स्वतंत्र सोच के साथ आगे बढ़ रहा है। अगर RSS वाकई इन बदलावों को समझता है और उन्हें अपनाता है, तो यह भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक भविष्य को आकार दे सकता है।
लेकिन जब तक विचारों के साथ-साथ जमीनी स्तर पर भी बदलाव नहीं आता, तब तक यह बदलाव केवल भाषणों और सम्मेलनों तक सीमित रह जाएगा। और तब, यह ‘Thin Saffron Line’ एक ऐसी रस्सी बन जाएगी जिस पर चलना बेहद जोखिम भरा हो सकता है।