




अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी इन दिनों भारत दौरे पर हैं, और इसी के साथ एक बार फिर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबंद की चर्चा पूरे देश में शुरू हो गई है। तालिबानी विदेश मंत्री के इस दौरे ने न केवल भारत-अफगानिस्तान के संबंधों को नई दिशा दी है, बल्कि देवबंद और दक्षिण एशिया के इस्लामी इतिहास के पुराने संबंधों को भी सुर्खियों में ला दिया है।
दरअसल, मुत्ताकी का भारत दौरा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा यात्रा प्रतिबंध में दी गई अस्थायी छूट के बाद संभव हो पाया है। 9 अक्टूबर को वे रूस से होते हुए नई दिल्ली पहुंचे और उनका यह दौरा 15 अक्टूबर तक चलेगा। इस दौरान मुत्ताकी की मुलाकात भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से होने वाली है। वर्ष 2021 में अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता संभालने के बाद यह पहली बार होगा जब भारत और तालिबान सरकार के बीच उच्च-स्तरीय बातचीत होगी।
लेकिन मुत्ताकी की यात्रा केवल राजनयिक दृष्टिकोण से नहीं देखी जा रही। देवबंद, जो भारत में इस्लामी शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र माना जाता है, एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय बहस के केंद्र में है। इसकी वजह यह है कि तालिबान की वैचारिक जड़ें देवबंदी विचारधारा से जुड़ी मानी जाती हैं। 1866 में स्थापित दारुल उलूम देवबंद ने दक्षिण एशिया में धार्मिक शिक्षा की नींव रखी थी। यहां से निकली देवबंदी विचारधारा ने पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश तक गहरी पैठ बनाई।
कहा जाता है कि तालिबान के कई शीर्ष नेता — जिनमें मुल्ला उमर जैसे संस्थापक भी शामिल हैं — देवबंदी विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। यह विचारधारा इस्लाम के मूल सिद्धांतों पर लौटने और आधुनिकता या पश्चिमी प्रभावों से दूरी बनाए रखने की बात करती है। यही कारण है कि जब भी अफगानिस्तान की राजनीति या तालिबान का जिक्र होता है, देवबंद का नाम अनायास ही सामने आ जाता है।
मुत्ताकी के भारत दौरे को लेकर अफगान मीडिया में यह भी चर्चा है कि वे अपने कार्यक्रम के दौरान देवबंद का दौरा भी कर सकते हैं। हालांकि भारत सरकार या अफगान पक्ष की ओर से इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं की गई है, लेकिन स्थानीय प्रशासन और खुफिया एजेंसियां सतर्क हैं। देवबंद में मौजूद धार्मिक संस्थानों और स्थानीय नेताओं ने इस पर कोई औपचारिक टिप्पणी नहीं की है, परंतु क्षेत्र में चर्चाएं तेज हैं कि तालिबानी विदेश मंत्री का यह दौरा धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्व रख सकता है।
भारत और तालिबान के बीच संवाद हमेशा से जटिल रहा है। भारत ने अब तक तालिबान शासन को औपचारिक मान्यता नहीं दी है, लेकिन मानवीय सहायता और अफगान जनता की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सीमित स्तर पर संवाद बनाए रखा है। तालिबान की ओर से भी भारत के प्रति सकारात्मक संकेत दिए जा रहे हैं। मुत्ताकी की यह यात्रा दोनों देशों के बीच कूटनीतिक दूरी को कम करने का प्रयास मानी जा रही है।
देवबंद के इतिहास की बात करें तो यह संस्थान केवल भारत तक सीमित नहीं रहा। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के हजारों धार्मिक स्कूलों का पाठ्यक्रम आज भी देवबंदी शिक्षा पद्धति पर आधारित है। लेकिन समय के साथ इस विचारधारा की व्याख्या कई देशों में अलग-अलग रूप में हुई। भारत में जहां देवबंद ने शिक्षा, धार्मिक जागरूकता और सामाजिक सुधार पर ध्यान दिया, वहीं पाकिस्तान और अफगानिस्तान में इसका राजनीतिक रूप दिखाई देने लगा।
तालिबान की विचारधारा को कई बार देवबंदी मत का “कट्टर” संस्करण कहा गया है। हालांकि दारुल उलूम देवबंद ने कई बार सार्वजनिक रूप से यह कहा है कि उसका तालिबान या किसी भी हिंसक गतिविधि से कोई संबंध नहीं है। संस्थान के उलेमा कहते हैं कि देवबंद का मकसद हमेशा शिक्षा, सामाजिक सुधार और इस्लामी नैतिकता का प्रसार रहा है, न कि राजनीतिक हिंसा या उग्रवाद।
इस बीच मुत्ताकी के भारत दौरे को लेकर अंतरराष्ट्रीय हलकों में भी हलचल मच गई है। विश्लेषकों का कहना है कि तालिबान भारत के साथ संवाद बढ़ाकर अपने शासन को अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलाना चाहता है। वहीं भारत के लिए यह दौरा रणनीतिक रूप से अहम है, क्योंकि अफगानिस्तान में अस्थिरता सीधे भारत की सुरक्षा और क्षेत्रीय हितों को प्रभावित करती है।
दिल्ली में मुत्ताकी की मुलाकातों के दौरान आर्थिक सहयोग, आतंकवाद निरोधक रणनीति, क्षेत्रीय स्थिरता और शिक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा की उम्मीद है। भारत पहले ही अफगानिस्तान को मानवतावादी सहायता के रूप में खाद्य और औषधीय सहायता दे चुका है, और इस दौरे के बाद दोनों देशों के बीच सहयोग के नए रास्ते खुल सकते हैं।