




महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल जिले पालघर में शासन की एक नई पहल ने चर्चा पैदा कर दी है। राज्य सरकार ने यहां “बॉटम-अप गवर्नेंस मॉडल” यानी नीचे से ऊपर तक की प्रशासनिक व्यवस्था को लागू करने का निर्णय लिया है। इस मॉडल का उद्देश्य ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों को प्रशासनिक निर्णयों में प्रत्यक्ष भागीदारी देना है, ताकि विकास योजनाएं जमीनी स्तर पर लोगों की वास्तविक जरूरतों के अनुरूप बन सकें।
इस पहल ने जहां आदिवासी समुदाय में एक नई उम्मीद जगाई है, वहीं कई लोगों में इसे लेकर संशय भी बना हुआ है कि क्या यह मॉडल केवल कागजों तक सीमित रह जाएगा या वास्तव में बदलाव लाएगा।
आदिवासी इलाकों की पृष्ठभूमि
पालघर जिला महाराष्ट्र के सबसे पिछड़े जिलों में गिना जाता है। यहां की आबादी का लगभग 65 प्रतिशत हिस्सा आदिवासी समुदायों — मुख्य रूप से वारली, कातकरी और महादेव कोली जनजातियों — से आता है। ये लोग लंबे समय से मूलभूत सुविधाओं की कमी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की दिक्कतों, और रोजगार के अभाव से जूझ रहे हैं।
हालांकि पिछले कुछ वर्षों में सरकारी योजनाओं के जरिए इन इलाकों में सड़क, बिजली और स्कूल जैसी सुविधाएं बढ़ी हैं, लेकिन शासन की पारंपरिक टॉप-डाउन पॉलिसी के कारण स्थानीय जरूरतें कई बार अनसुनी रह जाती थीं।
इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए अब सरकार ने ‘बॉटम-अप गवर्नेंस’ मॉडल की दिशा में कदम बढ़ाया है, जिसमें ग्रामसभा और स्थानीय समुदायों को विकास योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन में अहम भूमिका दी जाएगी।
क्या है ‘बॉटम-अप गवर्नेंस मॉडल’?
यह शासन प्रणाली का ऐसा मॉडल है जिसमें निर्णय ऊपर से नीचे थोपे जाने की बजाय नीचे से ऊपर तक लिए जाते हैं। गांव की ग्रामसभा, पंचायत समिति और स्थानीय समुदाय अपनी जरूरतों और प्राथमिकताओं के अनुसार विकास योजनाएं तय करेंगे।
इन योजनाओं को फिर जिला प्रशासन तक पहुंचाया जाएगा, जहां उन्हें स्वीकृति देकर बजट आवंटन किया जाएगा। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि विकास की नीतियां वास्तव में उन लोगों की जरूरतों पर आधारित हों जो सीधे तौर पर उनसे प्रभावित होते हैं।
सरकार की योजना और दिशा
महाराष्ट्र सरकार ने इस मॉडल के तहत पालघर, गढ़चिरोली और नंदुरबार जैसे आदिवासी जिलों को प्राथमिकता सूची में रखा है। इन जिलों में विशेष “ग्राम विकास परिषदों” का गठन किया जा रहा है, जिसमें पंचायत प्रतिनिधियों के साथ स्थानीय महिला समूहों, युवाओं और किसानों को भी शामिल किया गया है।
सरकार का मानना है कि इससे न केवल नीतियों में पारदर्शिता बढ़ेगी, बल्कि स्थानीय लोगों में स्वामित्व की भावना भी विकसित होगी।
स्थानीय लोगों की प्रतिक्रिया — उम्मीद और संशय का संगम
पालघर के मोखाडा और जव्हार तालुका के कई ग्रामीणों का कहना है कि यह पहल सुनने में अच्छी लगती है, लेकिन उन्हें डर है कि यह भी पहले की योजनाओं की तरह “फाइलों में ही सीमित” न रह जाए।
वारली समुदाय की एक महिला सरपंच मंजू गवित कहती हैं,
“अगर हमें सच में अधिकार दिए गए, तो हम गांव की सड़क, पानी और स्कूल की समस्याओं को खुद हल कर सकते हैं। लेकिन सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि अधिकारी हमारी बात सुनें, न कि बस रिपोर्ट बना दें।”
वहीं युवा कार्यकर्ता संदीप कातकरी कहते हैं कि इस मॉडल की सफलता तभी संभव है जब ग्रामसभा को वित्तीय अधिकार भी दिए जाएं। उनके अनुसार,
“बिना बजट नियंत्रण के ग्रामसभा केवल सलाह देने वाली संस्था बनकर रह जाएगी। असली शक्ति तभी आएगी जब फंडिंग के फैसले स्थानीय स्तर पर हों।”
चुनौतियां भी कम नहीं
विशेषज्ञों का कहना है कि बॉटम-अप गवर्नेंस को लागू करने में सबसे बड़ी बाधा प्रशासनिक समन्वय की कमी और भ्रष्टाचार हो सकती है। कई बार अधिकारी स्थानीय निर्णयों को स्वीकार नहीं करते या उन्हें टाल देते हैं।
इसके अलावा, आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण योजनाओं की जानकारी सभी तक नहीं पहुंच पाती। ऐसे में पंचायत प्रतिनिधियों को अतिरिक्त प्रशिक्षण और सहायता की जरूरत होगी।