




भारत में दशकों से चल रहा नक्सल आंदोलन अब अपने निर्णायक मोड़ पर पहुंचता दिख रहा है। सीपीआई (माओवादी) के वरिष्ठ नेता मल्लोजुला वेणुगोपाल ने अपने साथियों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया है। यह केवल एक व्यक्ति का समर्पण नहीं, बल्कि एक विचारधारा के थक जाने और लोकतंत्र के मजबूत हो जाने की प्रतीक घटना है। वेणुगोपाल का यह कदम नक्सल आंदोलन के इतिहास में एक बड़ा बदलाव लेकर आया है।
वेणुगोपाल, जिन्हें उनके संगठन में ‘भुपत मास्टर’ और ‘अकबर’ के नाम से भी जाना जाता था, नक्सल आंदोलन के शीर्ष नेतृत्व में शामिल थे। उन्हें सीपीआई (माओवादी) की केंद्रीय समिति का सदस्य माना जाता था और वे संगठन की नीति निर्माण प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाते थे। कई वर्षों तक वे दक्षिण भारत, छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड और आंध्र प्रदेश के जंगलों में सक्रिय रहे।
उनका आत्मसमर्पण इस बात का संकेत है कि अब सशस्त्र क्रांति की विचारधारा भारतीय लोकतंत्र के सामने झुकने लगी है। दशकों तक बंदूक और हिंसा के बल पर व्यवस्था बदलने का सपना देखने वाले वेणुगोपाल ने आखिरकार लोकतंत्र की ताकत को स्वीकार कर लिया।
सूत्रों के मुताबिक, वेणुगोपाल ने सुरक्षा एजेंसियों के सामने अपने साथ कई नक्सल कमांडरों और कैडरों के साथ आत्मसमर्पण किया। यह कदम लंबे समय से चल रही बातचीत और सरकार की पुनर्वास नीति के तहत संभव हुआ है। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, बीते कुछ वर्षों में सैकड़ों नक्सली आत्मसमर्पण कर चुके हैं, लेकिन इस बार वेणुगोपाल जैसा शीर्ष नेता हथियार डाल दे, यह बेहद बड़ा विकास है।
वेणुगोपाल के आत्मसमर्पण के बाद सुरक्षा एजेंसियों और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नक्सल आंदोलन की रीढ़ अब लगभग टूट चुकी है। जो आंदोलन कभी राज्य दर राज्य फैल गया था, वह अब सिमटकर कुछ इलाकों तक सीमित रह गया है।
यह घटना नक्सलवाद की विचारधारा की थकावट को भी उजागर करती है। वेणुगोपाल जैसे विचारक, जिन्होंने कभी समाज में समानता और शोषणमुक्त व्यवस्था के लिए हथियार उठाए थे, अब मानने लगे हैं कि हिंसा से बदलाव संभव नहीं है। उनका यह आत्मसमर्पण बताता है कि लोकतंत्र में सुधार की गुंजाइश है और संवाद के जरिये भी व्यवस्था को बेहतर बनाया जा सकता है।
वेणुगोपाल का सफर भारतीय वामपंथी आंदोलन का एक प्रतीकात्मक अध्याय रहा है। वे आंध्र प्रदेश के एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते थे और छात्र जीवन में समाजवादी और वामपंथी विचारधारा से प्रभावित हुए। 1970 के दशक में वे भूमिगत आंदोलन में शामिल हुए और धीरे-धीरे संगठन के रणनीतिकार के रूप में उभरे। उनकी पहचान संगठन के “थिंक टैंक” के रूप में थी।
वर्षों तक वेणुगोपाल ने माओवादी आंदोलन की रणनीति तय की — चाहे वह ग्रामीण इलाकों में आधारभूत ढांचा तैयार करना हो या शहरी नेटवर्क को मजबूत बनाना। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में संगठन की कम होती जनस्वीकृति, सुरक्षा बलों का बढ़ता दबाव और आंतरिक मतभेदों ने आंदोलन को कमजोर कर दिया।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह आत्मसमर्पण केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक विचारधारा की पराजय का संकेत है। नक्सल आंदोलन, जो कभी गरीबी, अन्याय और असमानता के खिलाफ जनआंदोलन के रूप में शुरू हुआ था, समय के साथ हिंसक रूप ले चुका था। ग्रामीण इलाकों में डर और दहशत का पर्याय बन चुके इस आंदोलन के कमजोर पड़ने से अब विकास और शांति की नई उम्मीद जगी है।
भारत सरकार और राज्य सरकारों ने हाल के वर्षों में नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास कार्यों को गति दी है। सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसी सुविधाओं ने उन इलाकों में लोगों का भरोसा सरकार पर बढ़ाया है। इससे नक्सलियों की पकड़ ढीली पड़ी है। वेणुगोपाल जैसे वरिष्ठ नेताओं का आत्मसमर्पण इस प्रक्रिया को और तेज करेगा।
सरकारी सूत्रों का कहना है कि वेणुगोपाल और उनके साथियों को मुख्यधारा में लाने के लिए पुनर्वास योजना के तहत आर्थिक सहायता और सुरक्षा दी जाएगी। सरकार का मानना है कि अगर शीर्ष स्तर के नेता लोकतंत्र पर भरोसा दिखा सकते हैं, तो बाकी कैडर भी हथियार छोड़ने के लिए प्रेरित होंगे।
नक्सलवाद पर निगरानी रखने वाले एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “वेणुगोपाल का आत्मसमर्पण एक प्रतीकात्मक विजय है। यह बताता है कि अब हिंसा का रास्ता बंद हो रहा है। यह लोकतंत्र की परिपक्वता और उसकी स्वीकार्यता का परिणाम है।”
इस घटना के बाद यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या यह नक्सलवाद के अंत की शुरुआत है? हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि विचारधारा पूरी तरह खत्म नहीं होगी, लेकिन इसका सशस्त्र रूप अब टिक नहीं पाएगा। आने वाले वर्षों में सरकार का फोकस उन इलाकों में शिक्षा, रोजगार और इंफ्रास्ट्रक्चर पर रहेगा, जहां नक्सलवाद कभी गहराई तक जड़ें जमा चुका था।
वेणुगोपाल का यह आत्मसमर्पण आने वाली पीढ़ियों के लिए एक संदेश है — कि बंदूकें बदलाव नहीं लातीं, संवाद और लोकतंत्र लाता है। जिन सपनों को उन्होंने कभी हथियारों से पूरा करने की कोशिश की, अब वही सपने लोकतंत्र के रास्ते पर चलते हुए पूरे हो सकते हैं।
भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि वह सबसे मजबूत व्यवस्था है, जो हर विचारधारा, हर असहमति को अपने भीतर समाहित करने की क्षमता रखती है।
वेणुगोपाल की यह नई शुरुआत उस संदेश को दोहराती है — कि लोकतंत्र ही सबसे बेहतर रास्ता है, और जब संवाद के दरवाज़े खुले हों, तो बंदूकें हमेशा बेकार हो जाती हैं।