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    ‘सड़क नहीं तो वोट नहीं’: बिहार के टापू जैसे गांव ने किया चुनाव बहिष्कार का ऐलान

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    बिहार के कटिहार जिले के मनिहारी प्रखंड के केवाला पंचायत का छोटा सा गांव छोटी तेलड़ंगा आज भी विकास की रोशनी से दूर है। आज़ादी के 78 साल गुजर जाने के बाद भी इस गांव के ग्रामीण बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं। चारों तरफ गंगा नदी की धाराओं से घिरे इस गांव तक पहुंचने का एकमात्र जरिया नाव है। सड़क, पुल, अस्पताल और स्कूल जैसी आवश्यक सुविधाएं आज भी यहाँ के लिए सिर्फ सपना बनकर रह गई हैं।

    ग्रामीणों का कहना है कि प्रशासन और राजनीतिक प्रतिनिधियों ने उनके समस्याओं को नजरअंदाज किया है। इस निराशा के चलते उन्होंने ‘सड़क नहीं तो वोट नहीं’ का नारा लगाया और आगामी चुनाव में मतदान का बहिष्कार करने का ऐलान किया। उनका यह कदम ग्रामीण जीवन की कठिनाइयों और वर्षों से अनदेखी की कहानी बयान करता है।

    छोटी तेलड़ंगा गांव के लोग बताते हैं कि सालों से उन्होंने सड़क, पुल और अस्पताल की मांग की है, लेकिन उनकी आवाज़ अब तक कहीं नहीं सुनी गई। बच्चों के लिए स्कूल तक पहुंचना मुश्किल हो गया है, और स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में ग्रामीण छोटी-छोटी बीमारियों के इलाज के लिए भी बड़ी कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि अगर स्थिति नहीं बदली, तो आने वाले वर्षों में यहां का जीवन और भी कठिन हो जाएगा।

    गांववासियों का कहना है कि नाव के जरिए ही आने-जाने की मजबूरी उनके रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित कर रही है। बारिश और बाढ़ के मौसम में ग्रामीणों के लिए यह सफर जोखिम भरा और असुरक्षित हो जाता है। इस असहनीय स्थिति के कारण उन्होंने राजनीतिक चेतावनी के रूप में चुनाव बहिष्कार का निर्णय लिया। उनका मानना है कि जब तक बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं होंगी, वोट देकर सिर्फ प्रतीकात्मक समर्थन देना उनके लिए न्यायसंगत नहीं होगा।

    स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि उनकी पीड़ा केवल भौतिक सुविधाओं तक सीमित नहीं है। उन्होंने कहा कि सालों से उनकी समस्याओं को अनदेखा किया गया, विकास योजनाओं से उन्हें बाहर रखा गया और उनकी मांगों को नजरअंदाज किया गया। इस असंतोष का नतीजा यह हुआ कि ग्रामीण सशक्त और प्रतीकात्मक विरोध में अपने मताधिकार का उपयोग न करने का निर्णय ले रहे हैं।

    विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसी घटनाएं ग्रामीण भारत में सतत विकास और सरकारी जवाबदेही की कमी को उजागर करती हैं। यह केवल छोटी तेलड़ंगा तक सीमित नहीं है, बल्कि कई ऐसे गांव हैं, जहां बुनियादी ढांचे और सेवाओं की कमी लोगों के जीवन को प्रभावित कर रही है। ग्रामीणों का यह कदम सरकार और प्रशासन के लिए एक चेतावनी के रूप में देखा जा सकता है कि जनता की समस्याओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

    राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि छोटे गांवों में मतदान बहिष्कार का ऐलान एक महत्वपूर्ण संदेश देता है। यह दर्शाता है कि जनता अब सिर्फ वादों पर भरोसा नहीं करती, बल्कि वे विकास और सुविधाओं की वास्तविक उपलब्धता चाहते हैं। अगर प्रशासन समय रहते कदम नहीं उठाता, तो यह प्रदर्शन अन्य गांवों में भी फैल सकता है।

    छोटी तेलड़ंगा गांव के ग्रामीण यह भी कहते हैं कि उनका उद्देश्य केवल विरोध करना नहीं है, बल्कि प्रशासन और राज्य सरकार का ध्यान उनकी संवेदनशीलता और असली जरूरतों की ओर आकर्षित करना है। उनका कहना है कि वोट का अधिकार केवल तभी सार्थक होता है जब जीवन की बुनियादी आवश्यकताएं पूरी हों।

    कुल मिलाकर, बिहार के इस टापू जैसे गांव की कहानी यह दिखाती है कि विकास और न्याय के बिना लोकतंत्र का वास्तविक अनुभव अधूरा रह जाता है। ग्रामीणों की यह चेतावनी और चुनाव बहिष्कार का ऐलान न केवल उनके दर्द को सामने लाता है, बल्कि यह सरकार और प्रशासन के लिए एक चुनौती भी है कि वे छोटे और दूरदराज़ इलाकों में भी विकास की रोशनी पहुँचाएं।

    छोटी तेलड़ंगा गांव का यह आंदोलन इस बात की याद दिलाता है कि लोकतंत्र में जनता की आवाज़ का महत्व सर्वोपरि है। जब तक नागरिकों की जरूरतों को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी, उनके द्वारा किए गए वोट का अधिकार केवल प्रतीकात्मक रहेगा। यह कहानी ग्रामीण भारत में बुनियादी ढांचे और सेवाओं की वास्तविक स्थिति पर सवाल खड़े करती है और सरकार को चेतावनी देती है कि सड़क, पुल और स्कूल जैसी सुविधाएं प्रत्येक नागरिक का मूल अधिकार हैं।

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