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    AI टूल्स पर सरकारी नियंत्रण या अभिव्यक्ति की आज़ादी पर असर? डीपफेक रोकने की नई नीति पर उठे सवाल

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    भारत में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के तेजी से बढ़ते प्रभाव के बीच सरकार ने अब इस तकनीक पर नियंत्रण की दिशा में बड़ा कदम उठाया है। डीपफेक और भ्रामक सामग्री के बढ़ते दुरुपयोग को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने एक नया नियम जारी किया है जिसके तहत अब किसी भी AI-जनरेटेड विज्ञापन या वीडियो में 10% हिस्सा ‘डिस्क्लेमर’ के लिए आरक्षित करना होगा। इस डिस्क्लेमर में यह स्पष्ट रूप से बताया जाएगा कि कंटेंट आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से बनाया गया है।

    हालांकि, इस फैसले ने तकनीकी और कानूनी हलकों में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। जहां एक ओर सरकार का तर्क है कि यह कदम जनता को फेक कंटेंट से बचाने के लिए जरूरी है, वहीं विशेषज्ञों का कहना है कि यह नियम “नवाचार की स्वतंत्रता” और “अभिव्यक्ति की आज़ादी” पर प्रतिकूल असर डाल सकता है।

    डीपफेक: नई तकनीक, नया खतरा

    पिछले कुछ वर्षों में AI टूल्स ने रचनात्मकता और डिजिटल नवाचार को नई दिशा दी है। लेकिन इसी तकनीक का इस्तेमाल अब डीपफेक जैसे खतरनाक रूपों में होने लगा है — जहां किसी व्यक्ति के चेहरे, आवाज़ या हावभाव को कृत्रिम रूप से बदलकर फर्जी वीडियो बनाए जाते हैं। कई बार ये वीडियो इतने वास्तविक लगते हैं कि आम दर्शक के लिए असली और नकली में फर्क करना मुश्किल हो जाता है।

    सरकार का कहना है कि इस तरह के डीपफेक वीडियो ने फेक न्यूज और ऑनलाइन अफवाहों का नया खतरा खड़ा कर दिया है। इसके अलावा, मशहूर हस्तियों और राजनीतिक नेताओं की छवि को भी इससे नुकसान पहुंच रहा है। इसी को देखते हुए इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) ने नया नियम लागू किया है।

    कैडबरी-शाहरुख खान वाला उदाहरण बना आधार

    AI-जनरेटेड विज्ञापनों का चलन भारत में 2021 में चर्चा में आया, जब कैडबरी इंडिया ने एक विज्ञापन अभियान में शाहरुख खान की AI क्लोन वॉइस का इस्तेमाल किया था। इस विज्ञापन में SRK की आवाज़ और चेहरा डिजिटल रूप से रीक्रिएट किया गया था ताकि स्थानीय दुकानदारों के नाम लेकर विज्ञापन तैयार किए जा सकें।

    अब नए सरकारी नियमों के अनुसार, ऐसे सभी AI से बने विज्ञापनों में स्पष्ट रूप से यह बताना होगा कि कंटेंट वास्तविक नहीं है। इसके लिए विज्ञापन के फ्रेम का 10% हिस्सा “This content is AI-generated” जैसे डिस्क्लेमर को दिखाने में इस्तेमाल करना होगा।

    सरकार का मानना है कि इस कदम से लोगों का भरोसा बढ़ेगा और वे यह समझ पाएंगे कि कौन-सा कंटेंट वास्तविक है और कौन कृत्रिम रूप से बनाया गया है।

    विशेषज्ञों की राय: भरोसा नहीं, भय बढ़ेगा

    AI विशेषज्ञों और डिजिटल पॉलिसी विश्लेषकों का मानना है कि यह नियम नवाचार को सीमित कर सकता है। भारत में स्टार्टअप और विज्ञापन कंपनियाँ तेजी से AI टूल्स का उपयोग कर रचनात्मक अभियान बना रही हैं। ऐसे में 10% डिस्क्लेमर का नियम इन अभियानों की रचनात्मक अपील को कमजोर कर सकता है।

    इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन (IFF) ने कहा है कि “AI का नियमन जरूरी है, लेकिन इसे अत्यधिक प्रतिबंधात्मक नहीं होना चाहिए। ऐसा कदम क्रिएटिव फ्रीडम और अभिव्यक्ति की आज़ादी को बाधित कर सकता है।”

    टेक एक्सपर्ट्स का यह भी कहना है कि सिर्फ डिस्क्लेमर लगाने से डीपफेक का खतरा खत्म नहीं होगा। असली समस्या है — कंटेंट मॉडरेशन और स्रोत की पहचान। यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर गलत सूचना फैलाना चाहता है, तो वह डिस्क्लेमर को एडिट कर सकता है या पूरी तरह हटा सकता है। इसलिए, तकनीकी रूप से डीपफेक रोकने के लिए एल्गोरिदमिक पहचान और ब्लॉकचेन आधारित प्रमाणीकरण की जरूरत है।

    सरकार का तर्क: जनता की सुरक्षा सर्वोपरि

    केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने हाल ही में कहा कि “AI के दुरुपयोग को रोकना आज की सबसे बड़ी प्राथमिकता है। डीपफेक से लोकतंत्र, समाज और व्यक्ति की प्रतिष्ठा को सीधा खतरा है। सरकार नवाचार के खिलाफ नहीं, बल्कि उसके जिम्मेदार इस्तेमाल के पक्ष में है।”

    सरकार का यह भी कहना है कि AI कंटेंट की पहचान के लिए भविष्य में “डिजिटल वॉटरमार्किंग” जैसे तकनीकी उपाय भी लागू किए जाएंगे ताकि किसी भी फर्जी वीडियो को ट्रेस किया जा सके।

    आलोचकों का तर्क: अभिव्यक्ति पर सेंसरशिप का खतरा

    हालांकि, कई नागरिक अधिकार समूहों का मानना है कि इस तरह के नियम भविष्य में सेंसरशिप का रूप ले सकते हैं। यदि सरकार तय करेगी कि कौन-सा कंटेंट “वास्तविक” है और कौन “AI-जनरेटेड”, तो इससे रचनात्मक स्वतंत्रता सीमित हो जाएगी।

    फिल्म निर्माता, विज्ञापन एजेंसियाँ और डिजिटल क्रिएटर्स कह रहे हैं कि सरकार को पहले एक स्पष्ट परिभाषा देनी चाहिए कि ‘AI-जनरेटेड कंटेंट’ किसे कहा जाएगा। क्या हर संपादित वीडियो, हर एनिमेशन या ग्राफिक भी इसके दायरे में आएगा?

    कई लोगों का यह भी मानना है कि यदि नियम बहुत सख्त हुए, तो भारतीय क्रिएटर्स वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ सकते हैं, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभी ऐसा कोई कठोर डिस्क्लेमर नियम नहीं है।

    AI पर नियंत्रण की सरकारी कोशिश निस्संदेह सही दिशा में है — लेकिन इसका तरीका विवाद का विषय बन गया है। डीपफेक जैसे खतरों से बचाव के लिए नियमन आवश्यक है, परंतु नवाचार की गति पर अंकुश लगाना दीर्घकाल में हानिकारक साबित हो सकता है।

    भारत को ऐसे संतुलित ढांचे की जरूरत है जो एक ओर नागरिकों की गोपनीयता और विश्वास की रक्षा करे, तो दूसरी ओर तकनीकी प्रगति और अभिव्यक्ति की आज़ादी को भी बढ़ावा दे।

    AI का भविष्य तभी उज्जवल होगा जब नियंत्रण की जगह सहयोग की नीति अपनाई जाएगी — जहां सरकार, उद्योग और नागरिक समाज मिलकर यह तय करें कि तकनीक हमारे समाज के लिए खतरा नहीं, बल्कि सशक्तिकरण का साधन बने।

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