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चुनाव आयोग द्वारा लागू की जा रही SIR (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन) प्रक्रिया के दूसरे चरण को लेकर देश के कई राज्यों में माहौल पहले की तुलना में शांत नजर आ रहा है। जहां पहले चरण के दौरान विपक्षी दलों ने जोरदार विरोध और गोलबंदी दिखाई थी, वहीं अब वह जोश ठंडा पड़ गया है। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इसका सबसे बड़ा कारण बिहार के हालिया चुनाव परिणाम हैं, जिनसे विपक्षी दलों का रुख और रणनीति दोनों प्रभावित हुए हैं।
बिहार में SIR प्रक्रिया के दौरान विपक्ष ने जोर-शोर से इसका विरोध किया था। तब यह कहा जा रहा था कि मतदाता सूची के पुनरीक्षण की आड़ में सत्ताधारी दल अपने हित में वोटरों की नई इंजीनियरिंग कर रहा है। विपक्षी दलों ने इसे लोकतंत्र के खिलाफ कदम बताया था और चुनाव आयोग से लेकर सड़क तक विरोध प्रदर्शन किए थे। हालांकि, जब बिहार के नतीजे सामने आए तो विपक्ष की सारी दलीलें कमजोर पड़ गईं। मतदाताओं ने वहां सरकार के खिलाफ उम्मीद के मुताबिक नाराजगी नहीं दिखाई। इससे विपक्ष को यह संदेश मिला कि SIR प्रक्रिया का सीधा असर मतदाता मूड पर नहीं पड़ता।
दूसरे चरण में जब चुनाव आयोग ने राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्यों में SIR लागू करने की घोषणा की, तो विपक्ष की प्रतिक्रिया पहले जैसी तीखी नहीं रही। कई राज्यों में विपक्षी दलों ने सिर्फ औपचारिक बयान दिए, लेकिन कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं किया। इसका एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि बिहार के अनुभव से विपक्ष को यह समझ में आया कि अत्यधिक विरोध का राजनीतिक लाभ नहीं मिलता, बल्कि मतदाता इसे चुनावी नाटक के रूप में देखने लगते हैं।
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि विपक्ष के ठंडे रुख के पीछे एक और रणनीतिक कारण भी है— आगामी लोकसभा चुनावों की तैयारियां। विपक्ष अब अपने संसाधन और ऊर्जा राष्ट्रीय चुनावी मोर्चे पर केंद्रित करना चाहता है। SIR जैसे प्रशासनिक मसलों पर लंबी लड़ाई छेड़ने से उसका फोकस बंट सकता है। यही वजह है कि इस बार किसी बड़े विपक्षी दल ने इस मुद्दे पर राज्य स्तर पर मोर्चा खोलने से परहेज किया है।
वहीं, सत्ताधारी दलों ने SIR के जरिए चुनावी पारदर्शिता को मजबूत करने का दावा किया है। उनका कहना है कि यह प्रक्रिया “हर पात्र मतदाता को सूची में शामिल करने” के उद्देश्य से की जा रही है, ताकि किसी को भी मतदान अधिकार से वंचित न होना पड़े। कुछ राज्यों में प्रशासन ने घर-घर जाकर सत्यापन और नामांकन की प्रक्रिया शुरू की है, जिससे मतदाता सूची को अद्यतन और त्रुटिरहित बनाया जा सके।
विपक्ष के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि बिहार में विरोध के बावजूद परिणाम अपेक्षा से भिन्न आए। इसीलिए अब पार्टी नेतृत्व ने फैसला किया है कि SIR को लेकर अनावश्यक राजनीतिक टकराव से बचा जाए। उन्होंने कहा कि “लोगों का ध्यान इस समय महंगाई, बेरोजगारी और किसानों की समस्याओं पर है, इसलिए हमें उन मुद्दों पर बात करनी चाहिए जिनसे जनता सीधे प्रभावित होती है।”
हालांकि, कुछ क्षेत्रीय दल अब भी SIR प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे हैं। उनका आरोप है कि मतदाता सूची संशोधन की आड़ में प्रशासनिक पक्षपात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन ये आवाजें अब पहले की तरह संगठित या मुखर नहीं हैं। विपक्षी एकजुटता की कमी और मतदाता स्तर पर इसके सीमित प्रभाव ने इस आंदोलन को लगभग निष्प्रभावी बना दिया है।
राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि मतदाताओं की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। लोग अब जाति या क्षेत्रीय समीकरणों से ज्यादा विकास और रोज़गार जैसे मुद्दों पर मतदान करते हैं। यही वजह है कि SIR जैसी प्रक्रियाएं, जो मुख्य रूप से प्रशासनिक सुधार के दायरे में आती हैं, जनता के बीच कोई बड़ा राजनीतिक भाव नहीं जगा पातीं।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि SIR के दूसरे चरण में विपक्ष का विरोध ठंडा पड़ना केवल राजनीतिक थकान का संकेत नहीं है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि जनता का फोकस अब अधिक ठोस मुद्दों पर है। बिहार के अनुभव ने विपक्ष को यह सिखा दिया है कि किसी प्रक्रिया का विरोध करने से पहले उसके परिणामों को समझना आवश्यक है। आने वाले महीनों में जब SIR का असर मतदाता सूची पर स्पष्ट होगा, तब राजनीतिक दलों की रणनीति फिर से बदल सकती है।

		
		
		
		
		
		
		
		
		






