




अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से H-1B वीजा आवेदन पर लगाए गए $100,000 के नए शुल्क को लेकर अमेरिका में पहली बड़ी कानूनी चुनौती सामने आई है। शुक्रवार को कई संगठनों ने इस नीति के खिलाफ संघीय अदालत में मुकदमा दायर किया। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह नीति न केवल संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करती है बल्कि अर्थव्यवस्था और प्रतिभा आधारित आप्रवासन प्रणाली के लिए भी खतरनाक है।
यह मुकदमा कैलिफोर्निया के उत्तरी जिला न्यायालय में दायर किया गया है। इसमें याचिकाकर्ताओं के रूप में शामिल हैं:
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स्वास्थ्य सेवा प्रदाता
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धार्मिक संगठन
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विश्वविद्यालय प्रोफेसर
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शिक्षा क्षेत्र से जुड़े संस्थान
उनका कहना है कि इस नीति ने नियोक्ताओं, विदेशी पेशेवरों और संघीय एजेंसियों को अफरा-तफरी में डाल दिया है।
सितंबर 2025 में ट्रंप प्रशासन ने एक कार्यकारी आदेश के ज़रिए यह नीति लागू की थी, जिसके अनुसार अमेरिका में काम के लिए आने वाले H-1B वीजा धारकों से प्रति वर्ष $100,000 का शुल्क लिया जाएगा। इस नीति को बिना किसी पूर्व सूचना या सार्वजनिक परामर्श के अचानक लागू कर दिया गया।
सरकार का दावा है कि यह कदम अमेरिकी श्रमिकों की रक्षा और H-1B प्रणाली के दुरुपयोग को रोकने के लिए ज़रूरी है।
1. असंवैधानिक निर्णय:
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह शुल्क लगाने का निर्णय कांग्रेस की मंजूरी के बिना लिया गया है, जबकि अमेरिकी संविधान के तहत राजस्व और कर लगाने का अधिकार केवल कांग्रेस के पास होता है।
2. प्रशासनिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन:
यह नीति बिना किसी सार्वजनिक विमर्श या नोटिस के लागू की गई, जो कि Administrative Procedure Act (APA) का उल्लंघन है।
3. आर्थिक व मानवीय प्रभाव:
मुकदमे में यह तर्क दिया गया है कि यह नीति छोटे और गैर-लाभकारी संस्थानों को प्रतिभाशाली विदेशी कर्मचारियों को नियुक्त करने से रोकती है। साथ ही, इससे कई मेडिकल सेंटर, यूनिवर्सिटीज़ और धार्मिक संस्थानों की सेवाएं बाधित हो सकती हैं।
4. अस्पष्ट छूट नीति:
ट्रंप प्रशासन ने ‘राष्ट्रीय हित’ में कुछ मामलों में छूट देने का प्रावधान रखा है, लेकिन यह पूरी तरह अस्पष्ट और मनमाना है, जो भविष्य में भेदभाव का कारण बन सकता है।
H-1B वीजा प्रणाली का उपयोग कई अमेरिकी अस्पताल और शिक्षा संस्थान करते हैं।
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ग्रामीण इलाकों के मेडिकल क्लीनिकों में विदेशी डॉक्टर और नर्सें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
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अमेरिकी विश्वविद्यालयों में भारत और चीन जैसे देशों के प्रोफेसर और शोधकर्ता H-1B वीजा के तहत काम करते हैं।
$100,000 का शुल्क इन संस्थाओं की वित्तीय क्षमता से बाहर है, जिससे सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित होने का खतरा है।
भारत, H-1B वीजा का सबसे बड़ा लाभार्थी है।
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वर्ष 2024 में जारी किए गए कुल H-1B वीज़ाओं में से 70% से अधिक भारतीय नागरिकों को मिले।
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भारतीय आईटी और इंजीनियरिंग कंपनियाँ, अमेरिका में अपने कर्मचारियों को भेजने के लिए इसी वीजा का उपयोग करती हैं।
नई नीति के लागू होने से भारतीय पेशेवरों की अमेरिका में उपस्थिति घट सकती है, जिससे भारत-अमेरिका व्यापार संबंधों पर भी असर पड़ेगा।
भारत सरकार ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा:
“हम अमेरिकी सरकार से आग्रह करते हैं कि वह प्रवास और वीजा संबंधी नीतियों में पारदर्शिता और सहयोग बनाए रखे।”
ट्रंप प्रशासन का कहना है कि यह शुल्क “अमेरिकी नौकरियों की सुरक्षा” के लिए अनिवार्य है। व्हाइट हाउस से जारी बयान में कहा गया:
“हम उन कंपनियों को जवाबदेह बनाना चाहते हैं जो अमेरिकी नागरिकों को नजरअंदाज़ करके सस्ते विदेशी श्रमिकों को नियुक्त करती हैं।”
प्रशासन का यह भी दावा है कि इस शुल्क से प्राप्त राशि को अमेरिकन वर्कफोर्स को ट्रेनिंग देने में लगाया जाएगा।
क्षेत्र | संभावित प्रभाव |
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टेक्नोलॉजी कंपनियाँ | विदेशी प्रतिभा की कमी, नवाचार में गिरावट |
विश्वविद्यालय | रिसर्च प्रोजेक्ट में देरी, फैकल्टी की कमी |
स्वास्थ्य सेवा | ग्रामीण इलाकों में स्टाफ की कमी |
स्टार्टअप्स | H-1B फीस वहन नहीं कर पाने से स्केलिंग पर असर |
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अगर अदालत इस मुकदमे में याचिकाकर्ताओं के पक्ष में फैसला देती है, तो नीति पर अस्थायी रोक लग सकती है।
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इस मुकदमे से H-1B वीजा पर भविष्य में नीतिगत बदलाव और कानूनी पुनरीक्षा की उम्मीद बढ़ी है।
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कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दल भी इस मुद्दे पर लोकसभा चुनावों के दृष्टिकोण से चर्चा कर सकते हैं।
ट्रंप द्वारा H-1B वीजा के लिए $100,000 का शुल्क लगाना एक बड़ा और विवादास्पद कदम है, जिसे अमेरिका में पहली बार कानूनी चुनौती का सामना करना पड़ा है। यदि यह नीति बरकरार रहती है, तो न केवल अमेरिका में विदेशी टैलेंट का प्रवाह प्रभावित होगा, बल्कि वैश्विक स्तर पर अमेरिका की प्रतिभा और नवाचार नीति की साख भी दांव पर लग सकती है।