




देश में महंगाई की गणना करने का तरीका अब बदल सकता है। केंद्र सरकार इस बात पर विचार कर रही है कि खुदरा महंगाई दर यानी रिटेल इंफ्लेशन को तय करने में मुफ्त राशन जैसी योजनाओं को भी शामिल किया जाए। इस दिशा में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) ने एक अहम कदम उठाते हुए जनता, विशेषज्ञों और संस्थाओं से राय मांगी है।
मंत्रालय का कहना है कि वह यह जानना चाहता है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत वितरित किए जाने वाले मुफ्त अनाज — जैसे गेहूं और चावल — को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) में जोड़ा जाए या नहीं। CPI वही मानक है जिसके आधार पर देश की खुदरा महंगाई दर तय होती है। यही दर आगे चलकर भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की मौद्रिक नीतियों और रेपो रेट के फैसलों को भी प्रभावित करती है।
यह कदम इसलिए चर्चा में है क्योंकि अगर मुफ्त राशन को CPI में शामिल किया गया, तो देश में महंगाई के आंकड़े एक नए रूप में सामने आ सकते हैं।
सरकार की इस पहल का उद्देश्य महंगाई के मापदंड को और अधिक सटीक और व्यापक बनाना है। वर्तमान में CPI उन वस्तुओं और सेवाओं पर आधारित है जिन पर उपभोक्ता अपनी जेब से खर्च करता है। लेकिन मुफ्त राशन जैसी वस्तुएं, जिनकी आपूर्ति सरकार करती है, इस सूची से बाहर रहती हैं। ऐसे में CPI केवल उन वस्तुओं की कीमत को मापता है जिनके लिए भुगतान किया जाता है, न कि उन चीजों को जो मुफ्त में मिलती हैं।
भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दायरा बहुत व्यापक है। देश के करोड़ों लोगों को हर महीने मुफ्त या रियायती दर पर अनाज मिलता है। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना जैसी पहल के तहत सरकार ने कोविड काल के बाद भी इस सुविधा को जारी रखा है। इस योजना के तहत करीब 80 करोड़ लोगों को हर महीने पांच किलो अनाज मुफ्त दिया जाता है।
मंत्रालय का मानना है कि इतने बड़े पैमाने पर मुफ्त वितरण को CPI से बाहर रखना वास्तविक आर्थिक तस्वीर को अधूरी बना देता है। अगर इन वस्तुओं को CPI में शामिल किया जाता है, तो इससे यह समझने में मदद मिलेगी कि लोगों की वास्तविक उपभोग स्थिति कैसी है और सरकारी सहायता योजनाओं का प्रभाव महंगाई पर कितना पड़ता है।
सरकार द्वारा जारी चर्चा पत्र में यह कहा गया है कि यह बदलाव आसान नहीं होगा। मंत्रालय ने इस विषय पर कई विकल्पों पर विचार किया है। पहला विकल्प यह है कि मुफ्त अनाज को “शून्य मूल्य” के साथ CPI में शामिल किया जाए ताकि आंकड़ों में उसका प्रभाव दिख सके। दूसरा यह कि CPI बास्केट में उसका वजन अन्य वस्तुओं में समायोजित किया जाए।
यह चर्चा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे न केवल CPI की गणना की प्रक्रिया बदलेगी बल्कि भविष्य में इसकी श्रृंखला और आधार वर्ष भी अपडेट किए जाएंगे। मंत्रालय पहले ही CPI के नए आधार वर्ष को 2024 करने पर काम कर रहा है, ताकि आंकड़े मौजूदा उपभोग पैटर्न को बेहतर तरीके से दिखा सकें।
अर्थशास्त्रियों के बीच इस प्रस्ताव को लेकर मतभेद हैं। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि मुफ्त वस्तुओं को CPI में जोड़ने से महंगाई दर कृत्रिम रूप से कम दिखाई दे सकती है। उदाहरण के लिए, अगर उपभोक्ता को गेहूं या चावल मुफ्त मिल रहा है, तो उसके खर्च में कमी आएगी और CPI कम हो जाएगी, जबकि बाजार में कीमतें वैसी ही बनी रहेंगी। इससे नीति निर्माताओं को यह भ्रम हो सकता है कि महंगाई घट रही है।
दूसरी ओर, कुछ अर्थशास्त्री इसे एक सकारात्मक पहल मानते हैं। उनका कहना है कि भारत जैसे विकासशील देश में सामाजिक सुरक्षा योजनाएं लोगों के उपभोग व्यवहार को सीधे प्रभावित करती हैं। ऐसे में CPI को इन योजनाओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इससे न केवल आर्थिक गणना अधिक यथार्थवादी होगी, बल्कि यह भी पता चलेगा कि मुफ्त योजनाओं का वास्तविक प्रभाव कितना है।
इस प्रस्ताव का असर भारतीय रिजर्व बैंक की नीतियों पर भी गहराई से पड़ेगा। RBI हर दो महीने में मौद्रिक नीति समीक्षा करता है और रेपो रेट का निर्धारण मुख्य रूप से खुदरा महंगाई दर को देखते हुए करता है। अगर CPI की गणना की पद्धति में बदलाव होता है और महंगाई दर घटती है, तो ब्याज दरों को स्थिर रखने या घटाने का रास्ता खुल सकता है।
हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि यह कदम तभी फायदेमंद होगा जब इसकी गणना पारदर्शी और सटीक हो। महंगाई दर केवल संख्याओं का खेल नहीं, बल्कि आम नागरिक के जीवन पर सीधा असर डालने वाला आर्थिक संकेतक है। ऐसे में इसके दायरे को बढ़ाने से पहले विस्तृत परीक्षण जरूरी है।
मंत्रालय ने इस प्रस्ताव पर 22 अक्टूबर 2025 तक सभी हितधारकों से राय मांगी है। इसके बाद प्राप्त सुझावों के आधार पर अंतिम निर्णय लिया जाएगा। चर्चा पत्र का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि खुदरा महंगाई दर की गणना भारत की वास्तविक आर्थिक परिस्थिति को अधिक सटीक रूप में प्रतिबिंबित करे।
सरकार का इरादा है कि नए CPI ढांचे में समाज के हर वर्ग की उपभोग आदतों और सरकारी योजनाओं के असर को शामिल किया जाए। इससे नीति निर्धारण की प्रक्रिया अधिक समावेशी और साक्ष्य-आधारित हो सकेगी।