




कर्नाटक की राजनीति में एक बार फिर लिंगायत समुदाय को लेकर सियासी हलचल तेज हो गई है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के हालिया बयान ने कांग्रेस पार्टी के भीतर पुराने घावों को फिर से हरा कर दिया है। दरअसल, मुख्यमंत्री ने हाल ही में एक कार्यक्रम में कहा था कि सामाजिक सुधारक बसवन्ना ने लिंगायतों को एक अलग धर्म के रूप में स्थापित किया था, जो हिंदू धर्म से भिन्न विचारधारा रखता है। इस बयान के बाद से न केवल विपक्ष ने मुख्यमंत्री को घेरने की कोशिश की, बल्कि खुद कांग्रेस के अंदर भी मतभेद खुलकर सामने आ गए।
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के बयान के तुरंत बाद कांग्रेस के दो वरिष्ठ मंत्री—एम. बी. पाटिल और ईश्वर खांड्रे—आपस में भिड़ गए। दोनों मंत्री लिंगायत समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और पहले भी इस मुद्दे पर अलग-अलग रुख अपनाते रहे हैं। इस बार भी दोनों नेताओं ने सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे के बयानों पर सवाल उठाए, जिससे पार्टी की असहज स्थिति सामने आ गई।
एम. बी. पाटिल ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के बयान का समर्थन करते हुए कहा कि “बसवन्ना ने हमेशा समानता, सामाजिक न्याय और भेदभाव-मुक्त समाज की बात की थी। उन्होंने एक अलग अनुभव मंटप की स्थापना की, जो उस समय सामाजिक सुधार का प्रतीक था। लिंगायत धर्म किसी एक पंथ या जाति का नहीं, बल्कि एक विचारधारा का नाम है।”
वहीं, ईश्वर खांड्रे ने पाटिल के बयान से असहमति जताते हुए कहा कि लिंगायतों को हिंदू धर्म का ही हिस्सा माना जाता है। उन्होंने कहा, “बसवन्ना ने हिंदू धर्म के भीतर सुधार की बात की थी, अलग धर्म की नहीं। इस तरह की बातें धार्मिक भावनाओं को भड़काने का काम करती हैं और समुदाय को बांटने का प्रयास करती हैं।”
दोनों मंत्रियों के बीच यह जुबानी जंग अब मीडिया की सुर्खियों में है। कांग्रेस आलाकमान ने इस पर नाराजगी जताई है और राज्य के नेताओं से कहा है कि वे इस तरह के संवेदनशील मुद्दों पर सार्वजनिक बहस से बचें। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि “लिंगायत समुदाय कर्नाटक की राजनीति में प्रभावशाली है, और इस तरह की बहस पार्टी के लिए नुकसानदेह हो सकती है।”
कांग्रेस के भीतर यह विवाद नया नहीं है। 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले भी लिंगायत समुदाय को लेकर इसी तरह की बहस छिड़ी थी। उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायतों को एक अलग धर्म का दर्जा देने की सिफारिश की थी, जिसे लेकर भारी विवाद हुआ था। यह कदम कांग्रेस की ‘धार्मिक पहचान की राजनीति’ के रूप में देखा गया था। हालांकि, तब यह फैसला चुनावी लाभ नहीं दे सका और पार्टी को सत्ता से बाहर होना पड़ा।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह विवाद महज धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक गणित से जुड़ा हुआ है। कर्नाटक में लिंगायत समुदाय राज्य की कुल आबादी का लगभग 17 प्रतिशत है और यह समुदाय चुनावी दृष्टि से निर्णायक भूमिका निभाता है। इसीलिए, हर राजनीतिक दल इस समुदाय के समर्थन को अपनी प्राथमिकता में रखता है।
बीजेपी ने इस मौके का फायदा उठाते हुए कांग्रेस पर निशाना साधा है। बीजेपी के नेताओं ने कहा कि कांग्रेस हमेशा से समाज को बांटने की राजनीति करती आई है। बीजेपी के प्रवक्ता ने कहा, “सिद्धारमैया का बयान बताता है कि कांग्रेस अब भी लिंगायत समुदाय की आस्था और एकता को तोड़ने की कोशिश कर रही है। उन्हें पहले यह तय करना चाहिए कि वे धर्म की राजनीति करना चाहते हैं या विकास की।”
दूसरी ओर, जनता दल (सेक्युलर) ने भी इस विवाद पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह कांग्रेस की अंदरूनी खींचतान का नतीजा है। पार्टी के प्रवक्ता ने कहा कि “कांग्रेस हमेशा धार्मिक भावनाओं के साथ खेलती है। अब उनके अपने ही मंत्री एक-दूसरे से उलझ रहे हैं।”
लिंगायत समुदाय के कुछ प्रमुख मठाधीशों और संतों ने भी इस विवाद पर नाराजगी जताई है। उन्होंने कहा कि बसवन्ना का संदेश सार्वभौमिक था और उसे किसी राजनीतिक या धार्मिक सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। बेलगावी के एक प्रमुख लिंगायत मठ के प्रमुख ने कहा, “बसवन्ना ने भक्ति, समानता और सत्य के रास्ते पर चलने का संदेश दिया था। आज उनके नाम पर राजनीति करना उनके विचारों का अपमान है।”
कांग्रेस नेतृत्व अब इस विवाद को शांत करने की कोशिश में जुट गया है। पार्टी सूत्रों के अनुसार, मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने दोनों मंत्रियों को बातचीत के लिए बुलाया है ताकि मामले को सार्वजनिक मंचों से हटाकर पार्टी स्तर पर सुलझाया जा सके। राज्य कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि “हम सभी नेताओं को याद दिला रहे हैं कि धर्म और आस्था के विषय पर बयान देते समय जिम्मेदारी और संवेदनशीलता दिखानी चाहिए।”
यह विवाद ऐसे समय में उठा है जब कर्नाटक में आने वाले महीनों में स्थानीय निकाय चुनाव होने वाले हैं। पार्टी चाहती है कि वह एकजुट होकर बीजेपी को चुनौती दे, लेकिन इस तरह के विवाद उसके एकता अभियान को कमजोर कर सकते हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि लिंगायत धर्म का मुद्दा बार-बार कर्नाटक की राजनीति में उठाया जाता रहा है क्योंकि इससे सत्ता समीकरण प्रभावित होते हैं। हर बार यह विवाद किसी न किसी रूप में कांग्रेस के भीतर उथल-पुथल मचा देता है। सिद्धारमैया के हालिया बयान ने फिर से यही परिदृश्य दोहरा दिया है।
कुल मिलाकर, बसवन्ना के उपदेशों और लिंगायत धर्म के स्वरूप पर छिड़ी यह नई बहस कर्नाटक की राजनीति को फिर से धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर धकेल सकती है। अब देखना यह होगा कि कांग्रेस इस विवाद को कैसे संभालती है — क्या वह इसे वैचारिक चर्चा के रूप में रखती है या एक और राजनीतिक संकट में बदलने देती है।