




महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर गरमा गई है। राज्यपाल सी. पी. राधाकृष्णन ने हाल ही में पारित “महाराष्ट्र स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी बिल, 2024” को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के पास भेज दिया है। इस बिल को आम बोलचाल में “Urban Naxal Bill” कहा जा रहा है, क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य शहरी क्षेत्रों में नक्सली गतिविधियों और उनसे जुड़े नेटवर्क को रोकना है।
हालांकि, इस बिल के खिलाफ विपक्षी दलों और नागरिक संगठनों ने तीखा विरोध जताया है। उनका कहना है कि इस कानून का इस्तेमाल सरकार आलोचकों की आवाज दबाने और असहमति जताने वाले बुद्धिजीवियों, छात्रों और एक्टिविस्टों के खिलाफ किया जा सकता है।
महाराष्ट्र सरकार का दावा है कि यह कानून राज्य में आंतरिक सुरक्षा को मजबूत करेगा। बिल में निम्नलिखित प्रावधान शामिल हैं:
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शहरी नक्सली गतिविधियों की परिभाषा:
कोई भी व्यक्ति, समूह या संस्था यदि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नक्सलियों को सहयोग करती है, तो उसे इस कानून के दायरे में लाया जाएगा। -
कड़ी सज़ा का प्रावधान:
दोषी पाए जाने पर 5 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा और भारी जुर्माने का प्रावधान किया गया है। -
संपत्ति जब्ती का अधिकार:
सरकार या पुलिस प्रशासन को अधिकार होगा कि वे आरोपी की संपत्ति को जब्त कर सकें। -
फास्ट-ट्रैक अदालतें:
मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों की स्थापना की जाएगी ताकि न्याय में देरी न हो।
विरोध क्यों तेज़ हो रहा है?
इस कानून का विरोध करने वाले संगठनों का कहना है कि “Urban Naxal” जैसी परिभाषा बहुत अस्पष्ट है। इससे किसी भी असहमति जताने वाले व्यक्ति को नक्सल समर्थक बताकर जेल भेजा जा सकता है।
विपक्षी दलों के आरोप:
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कांग्रेस, राकांपा (शरद पवार गुट) और वामपंथी दलों ने इसे “लोकतंत्र के खिलाफ कानून” बताया है।
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उनका कहना है कि सरकार असहमति की आवाज़ को दबाने के लिए इस कानून का हथियार बना रही है।
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छात्रों, प्रोफेसरों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर इसका दुरुपयोग किया जा सकता है।
सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रिया:
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि इस कानून की आड़ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों का हनन होगा।
राज्य सरकार ने साफ कहा है कि यह बिल केवल उन्हीं लोगों पर लागू होगा जो वाकई नक्सली संगठनों से जुड़े होंगे।
गृह मंत्री ने विधान परिषद में कहा:
“यह कानून निर्दोष लोगों पर लागू नहीं होगा। हमारा मकसद सिर्फ उन लोगों को रोकना है जो शहरी इलाकों में छुपकर नक्सलियों को सहयोग करते हैं। निर्दोष नागरिकों को डरने की कोई ज़रूरत नहीं है।”
राजनीतिक हलचल और राष्ट्रपति की भूमिका
राज्यपाल द्वारा बिल को राष्ट्रपति को भेजने के बाद अब अंतिम निर्णय केंद्र सरकार और राष्ट्रपति के पास है। राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद ही यह कानून लागू होगा।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि:
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यदि राष्ट्रपति ने इस बिल को मंजूरी दे दी तो महाराष्ट्र पहला राज्य होगा जिसने शहरी नक्सल गतिविधियों के लिए अलग कानून बनाया।
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विपक्ष इस मुद्दे को लेकर व्यापक आंदोलन की तैयारी में है।
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2026 विधानसभा चुनाव से पहले यह मुद्दा एक बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा कर सकता है।
पृष्ठभूमि
महाराष्ट्र में नक्सल समस्या मुख्य रूप से गढ़चिरोली, गोंदिया और चंद्रपुर जिलों में केंद्रित है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सुरक्षा एजेंसियों ने दावा किया है कि नक्सली अब शहरी इलाकों में भी नेटवर्क फैलाने लगे हैं।
“Urban Naxal” शब्द का इस्तेमाल पहली बार 2017–18 में हुआ था जब पुणे की भीमा-कोरेगांव हिंसा के बाद कई एक्टिविस्ट गिरफ्तार किए गए। तब से यह शब्द राजनीतिक और सामाजिक विमर्श का हिस्सा बन गया।
जनता की राय
इस पूरे विवाद पर आम जनता की राय बंटी हुई है।
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कुछ लोग इसे सुरक्षा के लिए आवश्यक कदम मान रहे हैं।
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वहीं बड़ी संख्या में लोग चिंतित हैं कि इसका दुरुपयोग हो सकता है।
मुंबई विश्वविद्यालय के एक छात्र ने कहा:
“अगर यह कानून वास्तव में केवल नक्सल समर्थकों पर लागू होता है तो अच्छा है, लेकिन इतिहास बताता है कि ऐसे कानूनों का इस्तेमाल अक्सर विरोधियों को दबाने में किया जाता है।”
महाराष्ट्र का शहरी सुरक्षा बिल अब राष्ट्रीय बहस का विषय बन गया है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी पर इस कानून का भविष्य निर्भर करता है।
यह बिल सुरक्षा बनाम स्वतंत्रता की बहस को एक नई दिशा दे रहा है। एक ओर सरकार इसे राज्य की सुरक्षा के लिए जरूरी मानती है, वहीं विपक्ष और नागरिक संगठन इसे लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बता रहे हैं।
आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर महाराष्ट्र में राजनीतिक उथल-पुथल और तेज हो सकती है।