




महाराष्ट्र सरकार ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट (SC) के समक्ष एक ऐसा प्रस्ताव रखा है जिसने पर्यावरणविदों और कानूनी विशेषज्ञों में नई बहस छेड़ दी है। सरकार ने ज़ुडपी जंगल (Zudpi Jungle) को Forest (Conservation) Act की परिभाषा से बाहर रखने और अतिक्रमण को नियमित करने का प्रस्ताव दिया है।
यह कदम न केवल पर्यावरणीय दृष्टिकोण से गंभीर चिंता पैदा करता है, बल्कि यह सवाल भी उठाता है कि क्या विकास और संरक्षण के बीच संतुलन बिगड़ रहा है।
ज़ुडपी जंगल क्या हैं?
‘ज़ुडपी’ शब्द का प्रयोग महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में पाए जाने वाले छोटे और झाड़ीदार जंगलों के लिए किया जाता है। यह क्षेत्रफल में लगभग 86,409 हेक्टेयर में फैले हुए हैं।
-
ये जंगल पारंपरिक रूप से स्थानीय समुदायों के लिए ईंधन, चारा और जैव विविधता का स्रोत रहे हैं।
-
1996 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक आदेश में कहा था कि सभी प्रकार के वन (जंगल), चाहे वे किसी भी श्रेणी में हों, Forest (Conservation) Act के अंतर्गत आएंगे।
-
इसी आदेश के तहत ज़ुडपी जंगल भी “वन” की परिभाषा में शामिल हुए थे।
सरकार का रुख
महाराष्ट्र सरकार का तर्क है कि ज़ुडपी जंगल वास्तव में “वन” नहीं हैं बल्कि झाड़ीदार भूमि (Scrub Land) हैं।
सरकार चाहती है कि इन क्षेत्रों का उपयोग कृषि, आवास, और औद्योगिक विकास के लिए किया जा सके।
इसके पीछे कुछ मुख्य तर्क दिए जा रहे हैं:
-
ग्रामीण विकास का दबाव – कई ज़ुडपी जंगल ऐसे इलाकों में हैं जहां ग्रामीण आबादी को जमीन की कमी है।
-
अतिक्रमण वास्तविकता – बड़ी संख्या में ज़ुडपी जंगलों पर पहले से ही अतिक्रमण हो चुका है, जिन्हें अब नियमित करना आसान समाधान माना जा रहा है।
-
राजस्व का सवाल – इन भूमियों के इस्तेमाल से सरकार को राजस्व और निवेश बढ़ाने का अवसर मिलेगा।
विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की चिंता
पर्यावरणविदों का कहना है कि सरकार का यह कदम पर्यावरण संरक्षण कानून और सुप्रीम कोर्ट के पुराने आदेश का स्पष्ट उल्लंघन है।
-
जैव विविधता पर असर: ज़ुडपी जंगल भले ही घने न हों, लेकिन इनमें स्थानीय वनस्पति और जीव-जंतु पनपते हैं।
-
पर्यावरणीय संतुलन: इन झाड़ियों और छोटे पेड़ों का क्षेत्र भूजल स्तर बनाए रखने और मिट्टी को कटाव से बचाने में मदद करता है।
-
कानूनी चुनौती: 1996 में SC ने साफ कहा था कि वन की कोई भी श्रेणी कानूनी संरक्षण से बाहर नहीं रखी जा सकती।
पर्यावरण कार्यकर्ताओं का मानना है कि यदि सरकार का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया, तो यह आने वाले समय में अन्य जंगलों के लिए भी खतरे की मिसाल बन जाएगा।
कानूनी स्थिति
-
Forest (Conservation) Act, 1980 – किसी भी वन भूमि का गैर-वन उपयोग केंद्र सरकार की मंजूरी के बिना संभव नहीं।
-
SC का 1996 आदेश – सभी प्रकार के वनों को इसमें शामिल किया गया।
-
महाराष्ट्र का प्रस्ताव – यह आदेश और कानून दोनों से विरोधाभासी माना जा रहा है।
इससे साफ है कि मामला केवल पर्यावरणीय ही नहीं बल्कि कानूनी पेचिदगियों से भी जुड़ा है।
स्थानीय समुदायों की भूमिका
विदर्भ क्षेत्र के ग्रामीणों का मानना है कि ज़ुडपी जंगल उनके जीवन का हिस्सा हैं।
-
कुछ लोग चाहते हैं कि इन्हें कृषि भूमि में तब्दील किया जाए ताकि खेती के लिए अधिक क्षेत्र उपलब्ध हो।
-
वहीं कई लोग मानते हैं कि जंगल का संरक्षण ज़रूरी है, क्योंकि यह उनके दैनिक जीवन (चारा, लकड़ी, जल संरक्षण) का आधार है।
इस तरह स्थानीय समाज भी इस मुद्दे पर दो हिस्सों में बंटा हुआ दिखाई देता है।
राजनीतिक पृष्ठभूमि
विशेषज्ञों का मानना है कि महाराष्ट्र सरकार का यह कदम राजनीतिक दृष्टि से भी प्रेरित हो सकता है।
-
ग्रामीण इलाकों में जमीन की मांग बढ़ रही है और सरकार चुनावी वादों को पूरा करने के दबाव में है।
-
विपक्ष ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए इसे “पर्यावरण विरोधी और विकास के नाम पर विनाशकारी कदम” बताया है।
संभावित परिणाम
-
कानूनी लड़ाई तेज़ होगी – सुप्रीम कोर्ट में यह मुद्दा लंबी बहस और चुनौती का कारण बनेगा।
-
पर्यावरण पर असर – यदि ज़ुडपी जंगलों को नष्ट किया गया तो स्थानीय पारिस्थितिकी और जलवायु पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
-
सामाजिक तनाव – भूमि उपयोग में बदलाव से ग्रामीण समाज के भीतर नए विवाद और असमानताएँ पैदा हो सकती हैं।
ज़ुडपी जंगल विवाद महाराष्ट्र के लिए केवल एक जमीन और विकास का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण और कानूनी प्रतिबद्धताओं की परीक्षा भी है।
सुप्रीम कोर्ट अब इस पर अंतिम फैसला देगा कि क्या विकास की आड़ में जंगलों को बलि चढ़ाया जा सकता है या फिर पर्यावरण और कानून को सर्वोच्च रखा जाएगा।
भविष्य में यह निर्णय न केवल ज़ुडपी जंगलों के लिए बल्कि पूरे भारत के वन संरक्षण ढांचे के लिए नजीर (precedent) साबित होगा।