




पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच हाल ही में रक्षा सहयोग को लेकर हुई नई डील ने एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हलचल पैदा कर दी है। यह समझौता केवल हथियारों या सैन्य प्रशिक्षण तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे दोनों देशों की सामरिक साझेदारी की नई परिभाषा माना जा रहा है।
हालांकि, यह कोई पहली बार नहीं है जब पाकिस्तान और सऊदी अरब इस तरह के रक्षा सहयोग में आए हैं। दोनों देशों के बीच दशकों से गहरे रणनीतिक और धार्मिक रिश्ते रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि अतीत में जिस इस्लामिक मिलिट्री काउंटर टेररिज्म कोएलिशन (IMCTC) जैसी पहल को लेकर बड़े दावे किए गए थे, वह आखिरकार क्यों नाकाम साबित हुई?
पाकिस्तान और सऊदी अरब का रिश्ता केवल कूटनीतिक या सामरिक नहीं, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर भी गहरा है।
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सऊदी अरब ने हमेशा पाकिस्तान की आर्थिक मदद की है।
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वहीं पाकिस्तान ने बदले में सऊदी अरब को सैन्य प्रशिक्षण, सैनिक और विशेषज्ञ उपलब्ध कराए हैं।
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1980 के दशक में अफगान जिहाद के दौरान दोनों देशों ने अमेरिका के साथ मिलकर तालिबान और मुजाहिदीन को समर्थन दिया।
इन रिश्तों की नींव इतनी मजबूत रही है कि हर संकट की घड़ी में पाकिस्तान को सऊदी अरब से आर्थिक पैकेज मिलता रहा है।
2015 में सऊदी अरब ने इस्लामिक मिलिट्री काउंटर टेररिज्म कोएलिशन (IMCTC) का गठन किया। इसका उद्देश्य था आतंकवाद के खिलाफ मुस्लिम देशों को एकजुट करना।
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IMCTC में 40 से अधिक मुस्लिम देश शामिल हुए।
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पाकिस्तान के पूर्व आर्मी चीफ जनरल राहील शरीफ को इसका पहला कमांडर-इन-चीफ बनाया गया।
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इस पहल को उस समय “मुस्लिम NATO” तक कहा जाने लगा था।
पाकिस्तान के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि मानी गई, क्योंकि उसे मुस्लिम दुनिया में एक नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया जा रहा था।
हालांकि, शुरुआती शोरगुल के बाद IMCTC का प्रभाव तेजी से कम होता गया। इसके पीछे कई कारण बताए जाते हैं:
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ईरान की नाराज़गी:
चूंकि ईरान इस गठबंधन का हिस्सा नहीं था, उसने इसे “सुन्नी गठबंधन” करार दिया। पाकिस्तान ईरान और सऊदी दोनों से रिश्ते बनाए रखना चाहता था, लेकिन इस गठबंधन ने उसके लिए मुश्किलें बढ़ा दीं। -
स्पष्ट रणनीति का अभाव:
IMCTC ने कभी भी अपने उद्देश्यों को साफ़ तौर पर परिभाषित नहीं किया। आतंकवाद के खिलाफ साझा सैन्य कार्रवाई की बात तो हुई, लेकिन ज़मीनी स्तर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। -
सदस्य देशों की प्राथमिकताएं अलग-अलग:
हर देश के अपने-अपने राष्ट्रीय हित थे। उदाहरण के लिए, तुर्की और कतर की प्राथमिकताएं सऊदी अरब और UAE से मेल नहीं खाती थीं। -
जनरल राहील शरीफ की सीमित भूमिका:
पाकिस्तान के पूर्व आर्मी चीफ होने के बावजूद राहील शरीफ केवल एक ‘फिगरहेड’ कमांडर साबित हुए। उनके पास स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति नहीं थी।
नतीजतन, कुछ ही वर्षों में IMCTC का प्रभाव लगभग खत्म हो गया और इसे आज “असफल प्रयोग” के रूप में देखा जाता है।
अब जबकि पाकिस्तान और सऊदी अरब ने फिर से एक रक्षा सहयोग समझौता किया है, विशेषज्ञ इसे पुराने रिश्तों का विस्तार मान रहे हैं। इसमें सैन्य प्रशिक्षण, रक्षा तकनीक का साझा उपयोग और खुफिया सहयोग शामिल होने की संभावना है।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या यह नया समझौता केवल प्रतीकात्मक रहेगा या फिर यह किसी ठोस परिणाम की दिशा में आगे बढ़ेगा?
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आर्थिक संकट से जूझ रहे पाकिस्तान के लिए यह डील राहत का संकेत हो सकती है।
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वहीं सऊदी अरब भी यमन युद्ध और ईरान से बढ़ते तनाव के बीच एक भरोसेमंद सैन्य सहयोगी चाहता है।
पाकिस्तान और सऊदी अरब का रिश्ता केवल आज की डील पर आधारित नहीं है, बल्कि यह दशकों पुराने राजनीतिक, सामरिक और धार्मिक रिश्तों की नींव पर टिका हुआ है।
हालांकि, अतीत में IMCTC जैसी पहल की असफलता यह दर्शाती है कि केवल घोषणाओं से काम नहीं चलता। यदि दोनों देश वास्तव में इस नए समझौते को सफल बनाना चाहते हैं, तो उन्हें स्पष्ट रणनीति, साझा लक्ष्य और व्यावहारिक कदमों पर ध्यान देना होगा।