




मध्य पूर्व (Middle East) हमेशा से संघर्षों और कूटनीति की जटिलताओं का केंद्र रहा है। इज़राइल और तुर्की, दोनों देशों के रिश्ते दशकों से उतार-चढ़ाव का शिकार रहे हैं। हाल के दिनों में यह सवाल उठ रहा है कि क्या इज़राइल की अगली रणनीतिक चुनौती या “निशाना” तुर्की हो सकता है? यहूदी समुदाय और विशेषज्ञों के बीच इस पर चर्चाएँ तेज हो गई हैं।
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तुर्की 1949 में इज़राइल को मान्यता देने वाले पहले मुस्लिम देशों में से एक था।
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लंबे समय तक दोनों देशों के बीच सैन्य सहयोग और व्यापारिक संबंध मजबूत रहे।
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लेकिन फिलिस्तीन मुद्दे और गाज़ा पट्टी में इज़राइल की नीतियों पर तुर्की ने कड़े विरोध दर्ज कराए।
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2010 का मावी मरमारा हमला, जब गाज़ा जा रहे तुर्की जहाज पर इज़राइली सेना ने हमला किया, दोनों के रिश्तों में बड़ा मोड़ साबित हुआ।
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गाज़ा संघर्ष में तुर्की का रुख
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तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोआन लगातार फिलिस्तीन का समर्थन करते हैं।
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उन्होंने खुले तौर पर इज़राइल की कार्रवाइयों को मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया।
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नाटो और पश्चिमी राजनीति
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तुर्की नाटो का सदस्य है, लेकिन उसकी नीतियाँ कई बार पश्चिमी देशों और इज़राइल की रणनीति से अलग रही हैं।
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यह स्थिति इज़राइल को असहज करती है।
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ऊर्जा राजनीति (Energy Politics)
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पूर्वी भूमध्य सागर में गैस संसाधनों पर दावे और पाइपलाइन प्रोजेक्ट्स भी विवाद का हिस्सा हैं।
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यहूदियों के देश यानी इज़राइल और यहूदी समुदाय में यह आशंका है कि:
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तुर्की की इस्लामी राजनीति इज़राइल विरोधी भावनाओं को बढ़ावा देती है।
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फिलिस्तीन के समर्थन से तुर्की अरब देशों में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता है।
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अगर तुर्की लगातार आक्रामक बयानबाज़ी करता है, तो यह क्षेत्रीय स्थिरता को प्रभावित कर सकता है।
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इंटरनेशनल रिलेशंस एक्सपर्ट्स का मानना है कि इज़राइल सीधे सैन्य कार्रवाई करने की बजाय तुर्की पर राजनयिक दबाव और गठबंधन राजनीति के जरिए काम करेगा।
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अमेरिका और यूरोपीय देशों के साथ इज़राइल की करीबी, तुर्की को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अलग-थलग कर सकती है।
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कुछ विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि तुर्की की आंतरिक आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियाँ पहले से ही उसे कमजोर कर रही हैं, ऐसे में इज़राइल उसे बड़ा खतरा मानकर प्राथमिकता से निपटना चाहता है।
तुर्की की विदेश नीति हाल के वर्षों में काफी आक्रामक रही है:
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सीरिया, लीबिया और अज़रबैजान के मुद्दों पर तुर्की की सैन्य सक्रियता दिख चुकी है।
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फिलिस्तीन को लेकर तुर्की खुद को इस्लामी दुनिया का नेता साबित करना चाहता है।
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इज़राइल के खिलाफ बयानबाजी तुर्की की घरेलू राजनीति में भी लोकप्रिय रहती है।
इज़राइल का ध्यान वर्तमान में तीन मोर्चों पर केंद्रित है:
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फिलिस्तीन और गाज़ा – लगातार चल रहा संघर्ष।
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ईरान – परमाणु कार्यक्रम और हिज़्बुल्लाह को समर्थन।
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तुर्की – कूटनीतिक और क्षेत्रीय टकराव का नया मोर्चा।
हालांकि, सैन्य विश्लेषकों का मानना है कि इज़राइल सीधे तुर्की से टकराव नहीं चाहेगा क्योंकि तुर्की नाटो का सदस्य है। लेकिन प्रॉक्सी राजनीति और अंतरराष्ट्रीय दबाव के जरिए उसे कमजोर करने की रणनीति संभव है।
इज़राइल और वैश्विक यहूदी समुदाय के बीच यह भावना प्रबल है कि तुर्की अब सिर्फ एक पड़ोसी विरोधी देश नहीं बल्कि संभावित चुनौती है।
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यहूदी विद्वानों का कहना है कि अगर तुर्की लगातार फिलिस्तीन का साथ देता रहा तो यहूदी राज्य के लिए बड़ी बाधा बनेगा।
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वहीं, उदारवादी यहूदी समूह मानते हैं कि तुर्की से रिश्ते सुधारने की कोशिश होनी चाहिए ताकि क्षेत्रीय स्थिरता बनी रहे।
मध्य पूर्व की जटिल राजनीति में इज़राइल और तुर्की के रिश्ते एक बार फिर चर्चा में हैं। यहूदियों के देश में यह आशंका बढ़ रही है कि तुर्की आने वाले समय में इज़राइल की नीतियों के लिए सबसे बड़ा चुनौती बन सकता है।
हालांकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि इज़राइल तुर्की पर सीधे “निशाना” साधेगा, लेकिन यह तय है कि दोनों देशों के बीच रिश्तों में तनाव और प्रतिस्पर्धा आने वाले वर्षों में और बढ़ सकती है।